पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/७६

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अभिप्राय यह है कि भावावस्था तक व्यक्तिगत भाव दूर नहीं होता, मन के अगोचर प्रदेश में स्थिर अानन्द का प्रकाश नहीं होता। अभिनव गुप्त ने भी कहा है कि परिमित व्यक्तित्व के विलोप से ही भावस्थिर चित्त में रस-स्वरूप आनन्द का विकास होता है। ___लौकिक शोक श्रादि मे दुःख ही होता है पर करुणा श्रादि रसों में जो सुख होता है उसका कारण भावों को रसता-प्राप्ति ही है। वेदना तभी तक वेदना रहती है जब तक रस की उच्च भूमि तक नहीं पहुँचती है । बूचर का यही कहना है कि विषादात्मक घटना को अग्र गति के साथ-साथ प्रथम संजात मानसिक विक्षोभ जब शान्त हो जाता है तब भाव का निकृष्टतर रूप सूक्ष्मतर और उच्चतर रूप में परिणत देखा जाता है। यही कारण है कि संभोग-शृङ्गार से विप्रलंभः शृङ्गार को मधुरतर और करुण-रस को मधुरतम कहा गया है ।” २ यदि शोक-भाव भाव ही रह जाता, रसावस्था को प्राप्त न होता, तो करुण रस मधुरतम नहीं होता। कवि जब अपनी प्रतिभा से शोक और उसके लौकिक कारणों से काव्य की अलौकिक सृष्टि करता है तभी पाठको के मन में रस का आनन्ददायी संचार होता है। वह करुण-रस दुःखदायक शोक-भाव नहीं होता। अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि कौन भाव रसावस्था को प्राप्त होते हैं- स्थायी वा संचारी । यद्यपि संचारी भावो की रसावस्थाप्राप्ति के संबंध में मतभेद है तथापि यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि *चारियों में स्थायी भावों की-सी रसीभवन को योग्यता नहीं है । इसीसे श्राचार्यों का बहुमत स्थायी भावों को प्राप्त है और सहृदयों के अनुभव से भी यह सिद्ध है। भोज कहते कि "वे स्थायी भाव ही वासना-लोक से प्रबुद्ध होकर चित्त में चिर काल तक रहते है, अपने व्यभिचारी भावों द्वारा सम्बद्ध होते है और रसत्व को प्राप्त होते है ।”3 इस दशा में संचारियों के रस होने की बात स्तुतिवाद-सी ज्ञात होती है। अभिनव गुप्त ने भाव की रसता-प्राप्ति की बात और स्पष्ट कर दी है-रस स्थायी भाव से विलक्षण वा भिन्न होता है।४ पंडित- १. As the tragic action progress, when the tumult of the mind, first 1oused, has afterwards subsided, the lower forms of emotion are found to have been transmuted into higher and more refined forms. २ सम्भोग-शृङ्गारात् मथुरतरो विप्रलंभः ततोपि मधुरतमः कृष्ण इति । ३. चिरं चित्तेजतिष्ठन्ते संपध्यन्तेऽनुबंधिभिः। रसत्वं प्रतिपद्यन्ते प्रबुद्धाः स्थायिनोऽत्र ते | १० कण्ठाभरण '., .. चळमाणतेक सारो मतु सिद्धस्वभावस्तात्कालिक एवं नतु चर्वणातिरितकालावलंबी स्थाबीविलक्षण एव रसः । नान्यास