अभिन्न-एक समझना है।' जो समालोचक साधारणीकरण के एक, दो या तीन अवस्थायें मानते है वह ठीक नहीं। प्रथम व्यक्तित्व को भूनना, व्यक्तित्व से ऊपर उठना और अपनेको खो बैठना, कालविशेष का अर्थ नही है। काव्य-श्रवण और नाट्य-दर्शन के समय इस प्रकार साधारणीकरण का कालविभाग असंभव है। इसमें कालव्यवधान का अवसर ही नहीं है । काव्य-पाठ वा काव्य-श्रवण की अपेक्षा नाटक-सिनेमा देखने में साधारणीकरण का रूप अत्यधिक प्रत्यक्ष होता है। काव्य-नाटक के अतिरिक्त कथा श्रवण, व्याख्यान- श्रवण आदि में भी साधारणीकरण संभव है, यदि उनके विभाव आदि में कथा- वाचक वा व्याख्याता तन्मयीभवनयोग्यता के उत्पादन की सामथ्यं रखते हों। चेतनगत अावरण का भंग होना ही साधारणीकरण है। सहृदय सामाजिक अपने लौकिक क्षुद्र विषयों को भूलकर नाटक और काव्य के विषयों में चित्त को निर्वाध रूप से जितना ही प्रविष्ठ होने देंगे उतना ही वे रसास्वादन करेंगे। रस और सौन्दर्य हमारे यहाँ जो महत्व रस-भाव को है वही महत्त्व पाश्चात्य साहित्य में सौन्दर्य का है । इस सौन्दर्य की व्याख्या विविध भाँति से की गयी है। सौन्दर्य के सम्बन्ध में जर्मन महाकवि गेटे का कहना है कि 'सौन्दर्य को समझना बड़ा कठिन है। वह तरल, भंगुर वा अमूर्त तथा भासात्मक छाया-सा कुछ है । २ उसकी रूपरेखा की व्याख्या पकड़ के बाहर है। फिर भी उसने कई परिभाषायें गढ़ी हैं, जिनमे एक का आशय यह है कि 'कोई वस्तु तभी सुन्दर हो सकती है जब कि वह अपनी नैसर्गिक विकास को पराकाष्ठा को पहुंच जाती है ।"3 सौन्दर्य के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ कहते है-“केवल स्थूल दृष्टि हो नहीं चाहिये। इसके साथ यदि मनोवृत्ति का संयोग हो तो सौन्दर्य का विशेष रूप से साक्षात्कार हो सकता है । यह मनोवृत्ति-विशेष शिक्षा से ही उपलब्ध हो सकती है। इस मन के भी कई स्तर है। बुद्धि-विचार से हम जितना देख सकते हैं, उससे कहीं अधिक देख सकते हैं, यदि उसके साथ हृदय-भाव को सम्मिलित कर लें। उसके साथ यदि धर्म-बुद्धि को मिला ले तो हमारी दूरदर्शिता अधिक बढ़ जायगी । यदि उसके साथ आध्यात्मिक दृष्टि खुल जाय तो फिर दृष्टि क्षेत्र की कोई सीमा ही १ प्रमाता तदभेदेन स्वात्मानं प्रतिपद्यते । सा० द० २. Beauty is inexplicable, it is a hovering, floating and glittering shadow, whose outline eludes the grasp of definition. . इ. A creation is beautiful when it has reached the height of ist natural development.
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