पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/८३

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वह अन्यान्य भावों को मिलाकर अपना-सा बना देता है। इसमें सन्देह नहीं कि सभी रस एक-से है; सभी के लक्षण-स्वरूप एक-से है और उनका प्राविर्भावकाल में चित्त की तन्मयता एक-सी होती है, तथापि प्रबन्ध-रचना की दृष्टि से इनमें मुख्य-गौण-भाव अवश्य लक्षित होता है । रामायण महाभारत-जैसे विशालकाय काव्यों में भी प्रमशः करुण और शांत रसो की प्रधानता है; क्योकि दोनो में वे दोनों आमूल वर्तमान है। इनके अन्तर्गत अन्य रस जो आये है वे प्रसंगतः वहीं उदित होते हैं और कहीं विलीन । इनका न्हां उदय होता है वहाँ मूल रस को ही लेकर और उनकी पोषकता के रूप में ही। यह नहीं होता कि स्थायी रस भिन्न रूप में है और सचारी रस भिन्न रूप में । रसोत्पत्ति में स्थायी-संचारी का जो सम्बन्ध है, वही प्रबन्ध-काव्यों में मुख्य और अमुख्य रसों में सम्बन्ध है। इसीसे उन्हे भी इन्हीं की संज्ञा दी गयी है। इसीसे रत्नाकरकार कहते हैं कि "नाटक के रसों में से एक ही को स्थायी बनाना चाहिए और उनके अनुयायी होने से अन्य रस व्यभिचारी होते हैं।"२ कितने समालोचक यह भी कहते है कि दो प्रकार के रस स्पष्ट प्रतीत होते हैं, जिन्हें व्यापक और अव्यापक या आधिकारिक और प्रासंगिक रस कहा जा सकता है। आधिकारिक रस में रति श्रादि भावों और शृंगार आदि रसों की गणना को जाती है। क्योंकि प्रबन्ध-पाठ से उनका स्हृदयो के चित्त पर विशेष प्रभाव पड़ना लक्षित होता है ; उनको व्यापकता अधिक देखी जाती है। उससे उनको चिर- कालिक्ता भी प्रमाणित है। प्रासंगिक रसो में ये बातें नहीं होती। किसी भाव को कर लिखी गयी कविता इस भेद के अन्तर्गत रक्खी जा सकती है। प्रधानतया व्यन्ति सचारी भाव रस-सामग्री से परिपुष्ट होने पर रसावस्था को पहुँच सकता है। ये ही प्रासंगिक रस हैं। इस विचार को संगत वा असंगत कुछ भी कहा नहीं जा सकता; क्योकि विभाव, अनुभाव से व्यजित संचारी-भाव स्थायी-भाव की-सी रसा- वस्या को नहीं पहुँच पाता । यह विवादास्पद विषय है। __काव्यानन्द रस्मूलक भी होता है और भावमूलक भी। दोनों की अनुभूतियाँ एक-सी होती हैं। चाहे आधिकारिक हो वा प्रासंगिक, रस का रूप एक है । उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। रसोत्पत्ति-प्रक्रिया के रंग-रूप में ही भेद सभव है । रसावस्था का भेद काल्पनिक है । १. विरुर विद्धवा भाविच्यिते न यः । आत्मभावं नयत्यन्यान् स स्थायी लक्षणाकरः। दशरूपक २. एकः कार्यों रसः स्थायी रसानां नाटके सदा । रसास्तदनुयायिप्वात् अन्ये तु व्यभिचारिणः1-सगीतरत्नाकर