पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

N प्रकार की होती है-१ चित्त को द्रवीभूत करनेवाली द्रति ; २ चित्तवृत्ति को उद्दीपित करनेवाली दीप्ति तथा ३ चित्त को विकास वा प्रसार करनेवाली व्याप्ति ।' अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गुण मनःस्थितिसूचक है तो फिर रस क्या है । इसको इस प्रकार स्पष्ट समझ लें । चित्तद्र ति को प्रान्तर (Subjeetive) माधुर्यगुण और चित्तद्र ति के अनुरूप शब्द-योजना को वाह्य (Objective) माधुर्यगण कहते है। कवि की भावना जब इस रूप में परिणत हो जाती है कि रसिक रसास्वाद के मद से झूम-झूम उठते है तब चित्तद्र ति रूप अान्तर माधुर्यं ही काम नही करता बल्कि वह चित्तद्र ति रसानुभूति की सहायिका हो जाती है। जब हम ये क्तियाँ पढ़ते हैं- तरणि के ही संग तरल तरंग से तरणि डूबी थी हमारी ताल में तब हमारा हृदय पिघल उठता है, पर इसका विश्राम यहीं नहीं हो जाता। अलंकार काव्य-शास्त्र में अलंकार की बड़ी महिमा है। इसकी प्रधानता का ही प्रमाण है कि काव्य-शास्त्र को अलंकारशास्त्र भी कहते हैं। राजशेखर ने तो "इसको वेद का सातवां अग कहा है। अलंकार वेदार्थ का उपकारक है। क्योंकि इसके बिना वेदार्थ को अवगति नहीं हो सकती ।।१२ जयदेव का कहना तो यह है कि "जो निरलकार शब्दार्थ को काव्य मानता है उस कृति को-माननेवाले को-तो आग को ठंढी ही मानना चाहिये। ____ काव्य के सौन्दर्य-साधक साधन, गुण, रीति, अलंकार आदि अनेक हैं ; पर उनमें अलंकार की प्रधानता है । दडी के कथनानुसार तो "काव्य के शोभाकारक सभी धर्म अलंकार-शब्द-वाच्य हो हैं।"४ जहां अलंकार सौन्दयं स्वरूप है, साधन-स्वरूप है, वहाँ रीतिकाल मे साध्य-स्वरूप बना दिये गये थे। अब भी कोई- कोई ऐसी चेष्टा करते है। ध्वनिकार कहते हैं कि “रस-कतृक आक्षिप्त वा आकृष्ट होने से जिसकी रचना संभव हो और रस के सहित एक ही प्रयत्न द्वारा जो सिद्ध १. (क) मालादकत्वं माधुर्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम् । (ख) चित्तस्य विस्ताररूपजनकत्वमोजः । (म) शुष्केन्द्यनाग्निवत् स्वच्छ जलवत् सहसैव यः। व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोसौ"काव्यप्रकाश 'उपकारकत्वात् अलकार सप्तममगमिति यायावरीया। ऋते च तत्स्वरूपपरिज्ञानात् वेदार्थानवर्गात:-कान्धमीमांसा • अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलकृती। असौ न मन्यते कस्मात् अनुष्णमनल कृती 11-चन्द्रालोक • काव्यशोभाकरान् धर्मानयलंकरान् प्रचक्षते | काव्यादर्श