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काव्य में रहस्यवाद


छाया और छाया को मूल आलम्बन बनाने से -- कला के क्षेत्र में कितना आडम्बर खड़ा हुआ है, इसका कुछ अन्दाज़ा ऊपर के ब्योरे से लग सकता है।

कल्पना की यह लोकोत्तर व्याख्या ब्लेक की अपनी उपज नहीं थी, यह हम पहले कह पाए है। यह उसने सूफियों से ज्यों की त्यों ली थी। शाहजहाॅ के पुत्र दाराशिकोह ने सूफियों के सिद्धान्त पर जो एक छोटी सी पुस्तक (रिसाल-ए-हकनुमा) संकलित की थी उसमे साफ़ यही बात लिखी है। देखिए --

"दृश्य जगत् में जो नाना रूप दिखाई पड़ते हैं वे तो अनित्य हैं, पर उन रूपो की जो भावनाएँ या कल्पनाएँ होती हैं, वे अनित्य नहीं हैं। वे कल्पना-चित्र नित्य हैं। इसी कल्पनारूपी चित्र-जगत् (आलमे मिसाल) से हम आत्म जगत् को जान सकते हैं जिसे 'आलमे ग़ैब' और 'आलमे ख्वाब' भी कहते हैं। आँख मूँदने पर किसी वस्तु का जो रूप दिखाई पड़ता है वही उस वस्तु की आत्मा या सार-सत्ता है। अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य की आत्मा उन्हीं रूपो की है जो रूप बाहर दिखाई पड़ते हैं। भेद इतना ही है कि अपनी सार-सत्ता में स्थित रूप पिंड या शरीर से मुक्त होते हैं। सारांश यह कि आत्मा और बाह्य रूपो का बिंब-प्रतिबिंब संबंध है। स्वप्न की अवस्था में आत्मा का यही सूक्ष्म रूप दिखाई पड़ता है। उस अवस्था में आँख, कान, नाक आदि सवकी वृत्तियाँ रहती हैं, पर स्थूल रूप नहीं रहते।"