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काव्य में रहस्यवाद


निश्चय स्वभावतः हो जाता है। पर साथ ही यह बात भी है कि चाहे किसी प्रकार की रचना हो जब वह फैएक शन के रूप में चला दी जाती है तब कुछ लोग बिना किसी प्रकार की अनुभूति के, यों ही रसज्ञ समझे जाने के लिए ही, वाह-वाह कर दिया करते हैं। इस प्रकार के लोग सब दिन रहे और रहेंगे। ऐसे ही लोगों के लिए उर्दू के एक पुराने शायर -- शायद नासिख -- ने कुछ ऊट- पटांग शेर बना रखे थे। जो उनके पास उनके शेर सुनने की इच्छा से जाता था, उसे पहले वे ही शेर वे सुनाते थे। यदि सुननेवाला 'वाह-वाह' कहने लगता तो वे जान लेते थे कि वह मूर्ख है और उठकर चले जाते थे।

मनुष्य लोकवद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकवद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है। एक की अनुभूति को दूसरे के हृदय तक पहुँचाना, यही कला का लक्ष्य होता है। इसके लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं। भाव-पक्ष में तो अनुभूति का कवि के अपने व्यक्तिगत सम्बन्धो या योग-क्षेम की वासनाओं से मुक्त या अलग होकर, लोकसामान्यभावभूमि पर प्राप्त होना (Impersonality and detachment)। कला या विधान-पक्ष मे उस अनुभूति के प्रेषण के लिए उपयुक्त भाषा-कौशल। प्रेषण के लिए कवि मे अनु- भूति का होना पहली बात है, इसमें सन्देह नही; पर उस अनु- भूति को जिस रूप में कवि प्रेषित करता है वह रूप उसे बहुत कुछ इस कारण दिया जाता है कि उसे प्रेषित करना रहता