पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११५
काव्य में रहस्यवाद


कल्पना को रूप-विन्यास करने का अवसर देती है। पश्चिम दिगंचल की सांध्य स्वर्णधारा के बीच धूम्र, कपिश धन-द्वीपों से होकर जाता हुआ स्वर्ग का मार्ग-सा खुला दिखाई पड़ता है। विश्व की विशाल विभूति के भीतर न-जाने कितने ऐसे दृश्य हमारी अन्तर्वृत्ति को रहस्योन्मुख करते हैं।

स्वाभाविक रहस्य-भावना बड़ी रमणीय और मधुर भावना है, इसमे सन्देह नहीं। रसभूमि में इसका एक विशेष स्थान हम स्वीकार करते हैं। उसे हम अनेक मधुर और रमणीय मनोवृत्तियो मे से एक मनोवृत्ति या अन्तर्दशा (Mood) मानते हैं जिसका अनुभव ऊॅचे कवि और-और अनुभूतियो के बीच कभी-कभी, प्रकरण प्राप्त होने पर, किया करते है। पर किसी 'वाद' के साथ सम्बद्ध करके उसे हम काव्य का एक सिद्धान्तमार्ग (Creed) स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं।

योरप के जिस 'रहस्यवाद' का संक्षिप्त परिचय हमने दिया है वह सिद्धान्ती या साम्प्रदायिक रहस्यवाद है। स्वाभाविक रहस्य- भावना उक्त वाद से सर्वथा भिन्न है। किसी 'वाद' के ध्यान से, साम्प्रदायिक सिद्धान्त के ध्यान से, जो कविता रची जायगी उसमे बहुत कुछ अस्वाभाविकता और कृत्रिमता होगी। 'वाद' की रक्षा या प्रदर्शन के ध्यान में कभी-कभी क्या प्रायः रस-संचार का प्रकृत मार्ग किनारे छूट जायगा।

सिद्धान्ती या साम्प्रदायिक रहस्यवादियों के अतिरिक्त योरप के प्रसिद्ध कवियो मे भी बहुत-से ऐसे कवि हुए है जिनकी कुछ