बड़े-बड़े कवि रहे हैं और हैं। दूसरी बात यह कि अनुकरण के
लिए वे बँगला, अँगरेजी आदि दूसरी भाषाओं की ओर ताकना
बिल्कुल छोड़ दें और अपनी भाषा की स्वाभाविक शक्ति से पूरा
काम लें। तीसरी बात है, लाक्षणिक प्रयोगो में सावधानी। इस
बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि जिस भाव से कोई शब्द
लाया गया है उसके साथ वह ठीक-ठीक बैठता है या नहीं।
इसी छायावाद के भीतर कुछ लोगो की कविताएँ ऐसी भी
मिलती हैं जिनका स्वरूप विलायती नही होता, जो कुछ थोड़ा-सा
बँगलापन लिए हुए सूफियों के तर्ज़ पर होती हैं। इनमे लाक्ष-
णिकता भी पूरी रहती है, पर वह अपनी भाषा की प्रकृति के
अनुसार होती है, अँगरेज़ी से उठाई हुई नहीं होती। ऐसी कविता
लिखनेवाले वे ही हैं जो हिन्दी-काव्य-परंपरा से पूर्णतया परिचित
हैं, जिन्हें अपनी भाषा पर पूरा अधिकार है और जो हिन्दी में
छायावाद प्रकट होने के पहले से अच्छी कविता करते थे। इनकी
छायावाद की रचनाओ में भी भावुकता और रमणीयता रहती
है। थोड़ा खटकनेवाली बात जो मिलती है वह है फारसी शायरी
के ढंग पर वेदना की अरुचिकर और अत्युक्त विवृति। शरीर-धर्मो
का अधिक विन्यास (Animality.) काव्यशिष्टता के विरुद्ध
पड़ता है, यह शायद हम पहले कहीं कह पाए हैं। जो हो, कोरे
विलायती तमाशे से हम इसे सौ दर्जे अच्छा समझते हैं। यद्यपि
रहस्य की ओर भारतीय काव्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नही; पर
हिन्दी-काव्यक्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा बहुत दिनों पहले से बड़े हृदय-