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काव्य में रहस्यवाद


देख सकेगी, विदेशी दर्पण की आवश्यकता होगी। विदेशी लोग जैसा हमें बतावेगे वैसा ही अपने को मानकर हम उसके प्रमाण उनके सामने रखा करेंगे। योरप ने कहा "भारतवासी बड़े आध्यात्मिक होते हैं, उन्हे भौतिक सुख-समृद्धि की परवा नहीं होती"। बस, दिखा चले अपनी आध्यात्मिकता। देखिए, हमारे काव्य मे भी आध्यात्मिकता है; यह देखिए हमारो चित्रविद्या की आध्यात्मिकता, यह देखिए हमारी मूर्तिकला की आध्या- त्मिकता।

जितनी बातें आजकल काव्यक्षेत्र में 'नवीनता' कहकर पेश की जाती हैं, एक-एक करके सबका मूल हम योरप के नए पुराने प्रचलित प्रवादों में दिखा चुके हैं। सब नक़ल की नकल हैं। इस नकल की प्रवृत्ति बंगाल मे ही सबसे अधिक रही। वहीं के साहित्य मे एक-एक बात की नकल शुरू हुई। नकल से किसी जाति के साहित्य का असली गौरव नहीं हो सकता। इससे उसकी अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता और अपनी उद्भावना का अभाव ही व्यंजित होता है। जिसकी नकल की जाती है वह और भी उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। बंग-भाषा के साहित्य में योरपीय साहित्य की प्रवृत्तियो की यह भद्दी नकल देख सर जार्ज ग्रियर्सन ने अपनी "भाषाओ की जाँच" में स्पष्ट विरक्ति प्रकट की है। एक जगह की प्रचलित और सामान्य वस्तुओ को दूसरी जगह विकृत रूप मे रखकर नवीनता को विज्ञप्ति करना किसी सभ्य जाति को शोभा नहीं देता। यह नवीनता नहीं है -- अपने स्वरूप का