चित्रण में प्रवृत्त करता है। वही बात यहाँ भी है। वास्तव में यह इसी जगत् के सुख-सौन्दर्य की आसक्ति या प्रेम है जो संचारी के रूप में आशा या अभिलाप का उन्मेप करके, इस सुख-सौन्दर्य को किसी अज्ञात या अव्यक्त क्षेत्र मे ले जाकर पूर्ण करने की ओर प्रवृत्त करता है। अतः तत्त्वदृष्टि से, मनोविज्ञान की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से "अज्ञात की लालसा" कोई भाव ही नहीं है। 'यह केवल "ज्ञात की लालसा" है जो भाषा की छिपानेवाली वृत्ति के सहारे "अज्ञात की लालसा" कही जाती है।
अपने सुख-सौन्दर्य की भावना को पूर्णता पर पहुँचाने के लिए इस क्षेत्र की ओर पहले-पहल दृष्टि करनेवाले सूफी थे। उनकी भावुकता इस जगत् की ऐसी विचित्र और रमणीय रूप विभूति को केवल ईश्वर की कृति या रचना मानने से तृप्त नहीं हुई। किसी के बनाए खिलौने की सुन्दरता देख हम चाहे जितने मुग्ध हों—इतने मुग्ध हों कि बनानेवाले का हाथ चूमने को जी चाहे—'पर हमारा प्रेम उस (बनानेवाले) से दूर-ही-दूर रहेगा। इससे सूफियों ने इस प्रत्यक्ष रूप-विभूति को ईश्वर की कृति न कहकर उसकी छाया या प्रतिबिंब कहा। किस प्रकार इस प्रतिबिंबवाद' के साथ 'अभिव्यक्तिवाद' का संयोग करके उन्होंने अपने काव्य-क्षेत्र में कृत्रिमता न आने दी, इसका वर्णन हम आगे चल कर करेंगे। यहाँ प्रस्तुत विषय है सुख-सौन्दर्य की भावना को अव्यक्त और अभौतिक क्षेत्र में ले जाकर पूर्णता को पहुंचाना। इस सम्बन्ध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि सूफी-कविता