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काव्य में रहस्यवाद

शिथिल और अशक्त होने लगी तब सन् १८६६ ई० मे उसके प्रतिवाद के रूप में "कला का उद्देश्य कला" का सिद्धान्त लेकर कुछ लोग खड़े हुए। ये लोग पारनेसियन ( Part isse Is ) कहलाए। इनका उद्देश्य काव्य मे अधिक समीचीन प्रेरणा, सुडौल योजना और चित्ताकर्षक शैली का प्रचार करना था ।

इन पारनेसियनो के पीछे सन् १८८५ ई० में "प्रतीकवादियो" (Symuslists or Decal us) का एक सम्प्रदाय फ्रांस में खड़ा हुओ जिसने अनूठे 'रहस्यवाद' और 'भावोन्मादमयी भक्ति' का सहारा लिया। हमारे यहाँ के श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी 'गीतांजलि' का अगरेजी अनुवाद प्रकाशित करके इसी सम्प्रदाय के सुर-मे-सुर मिलाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि बंगभाषा के प्रसाद से हिन्दी में इस वर्ग की प्रवृत्ति का अनुकरण खूब चल पड़ा है। बंगभाषा के काव्यक्षेत्र के तो एक कोने ही मे इस रहस्यवाद या छायावाद की तन्त्री बजी, मराठी, गुजराती को हरएक विलायती ताल-सुर नाचने की आदत नहीं पर हिन्दी में तो इसकी नकल का तूफान-सा आ गया।

यह 'प्रतीकवाद' सिद्धान्तरूप में यद्यपि आध्यात्मिक रहस्य-


  • Following upon the Parnassiens, about 1885, came

the Symbolists or Decadents-a movement of dexterous myst1018m and 'sentimental religiosity', too recent for satisfactory historical investigation.

-Gayley & kartz Methods and Materials of Later- ary Criticism.