पृष्ठ:काश्मीर कुसुम.djvu/२५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ ४० ] मन्दिर सुन्दर लताओं से वेष्ठित हो कर अपनी मनोहरता ने अद्यापि जय- देव जी के सुन्दर चित्त का परिचय देता है। " जया जी नितान्त जरुण हृदय षौर परम धाधिक धे। भक्ति बिन- सित महत्व रहा और अनुपस प्रीति व्यन्जक उदार भाव यह दोनों उन के अन्तःकरण में निन्तर प्रति गासित होते थे। उन्हों ने अपने जीवन का वर्ष- काल बोवल उपासना और धर्म घोपना में व्यतीत किया। वैष्णव संप्रदाय में इन के ऐसे धार्मिक और सहृदय पुरुप बिरले ही हुए है। जगदेव जी एक सलावि थे एरा में कोई सन्देह नहीं। यद्यपि कालिदाम भवति भारनि इत्यादि से वन दढ दार काहि थे यह नहीं कह सकते पर इनकी अपेक्षा इनको सामान्य भी नही कह सकते । बङ्गभूमि में तो कोई ऐसा रात कवि ज क हुत्रा नत्तों। “जनितपद विन्यास और श्रवण म- नोहर अनुप्रास छटा निबन्धन से जयदेव की रचना अत्यन्त हो चमत्कारिणी है। मधुर पद विन्यास में तो बडे २ कबि भी इस से निस्सन्देह हार है"। जय व जी का प्रसिद्ध ग्रन्व गीतगेबिन्द बारह सगों में विमल है। निस में पूर्व ने शोका और फिर गीत क्रम से रक्खें हैं। इस प्रत्य में परसर विरह, तृती, मान, गुण वाचन चौ- नाय का अनुनय और तत्पश्चात् सिन्तान यह सब णित । जयदेव जो परम वैष्णव थे इस से उन्हो ने जो कुछ वर्णन किया गयन्त प्रगाढ भक्ति पूर्ण हो कर वर्णन किया है । इन्होंने इस काव्य में अपनो रसपालिनी रचना शक्ति और चित्तरञ्जक राज्ञाव शालित्व का रक शेष प्रदर्शन दिया है। एडित वर वरचन्द्रविद्यासागर स्वप्रीत संस्कृत विषयक प्रस्ताब ले दिखते है "इस महाकाव्य गीतगोविन्द को रचना जैसी मधुर कोमन और मनोनर है उस तरह की दुसरी कविता संस्कृत आपा मे बहुत ल है। परञ्च ऐसे ललित पद विन्याम, प्रवन मगोचर, अनुप्रास छटा और प्रसाद गुण को कहीं नहीं है" बास्तच से रचना विषय में गीतगोविन्द एक अपूर्व पदार्थ है । गोर तालमानों के चातुर्य से और अनेक रागों के नाम के अनुकन्न गीतो में अक्षर से स्पष्ट बोध होता है कि जयदेव जी गाना बहुत अच्छा जानते थे । कते हैं कि गीतगोविन्द को अष्टपदो और अष्टताली नाम से भी लोग पुकारते हैं। अनिका विहानों ने लिखा है गीतगोविन्द चित्रमादित्य को सभा में माया जाता था। किन्तु यह कमा सर्वया अथडेय है। यह कोई और निक्रम होंगे