[ २ ] प्रोढ़ना घाघरा या छोटेपन में सुधना है। और दशो संस्त्रार होने की चाल इन में पब तक मिलती है। पुरबियों के अतिरिक्त मारवाड़ी अगरवाले भी होते हैं पर इनका ठीक पता नहीं मिलता कि कब से और कहा से हैं। जैसे पछांही अगरवालों की चाल खत्रियों से मिलती है वैसे ही इन साड़वारियों दशी महेशरियों से मिलती है पर पुरवियों की चाल तो इन दोनों से विलक्षण है । __ अगरवालों की उत्पत्ति की भूमिका में यह बात लिखनी भी बानन्द देने वाली होगी कि श्रीनन्दरायजी जिन के घर साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र प्रगट हुए वैश्यही घे और यह बात श्रीमद्भागवतादि ग्रंथों से भी निश्चय की गई है, जो हो सूस कुल में सर्वदा से लोग बड़े धनवान और उदार होते पाए पर इन दिनों वे बातें जाती रहीं थीं, सुगलों के समय से इनकी हचि फिर हुई और अब तक होती जाती है। सैने उस छोटे से अन्य में संक्षेप से इनको उत्पत्ति लिखी है निश्य है कि इसे पढ़ के वे लोग अपनी झुल परस्परा जानेंगे और मुझे भी अपने दीन और छोटे भाइयों में स्वर्ण रक्खेंगे । वैसाख शुद्ध ५ सं १८२८ । श्री हरिश्चन्द्र । काशी
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