और आज तो यह काफी मजबूत है, हालांकि संगठन में अभी कमी बहुत है। मगर असंगठित रूप में यह चीज पहले, असहयोग युग से पूर्व भी चलती रही है। संगठित से हमारा आशय सदस्यता के आधार पर बनी किसान-सभा और किसानों की पंचायत से है, जिसका कार्यालय नियमित रूप से काम करता रहता है और समय पर सभी समितियाँ होती रहती हैं। कागजी घुड़दौड़ भी चालू रहती है। यह बात पहले न थी। इसी से पूर्ववर्ती आन्दोलन असंगठित था। यों तो विद्रोहों को तत्काल सफल होने के लिये उनका किसी न किसी रूप में संगठित होना अनिवार्य था। 'पतिया' जारी करने का रिवाज अत्यन्त प्राचीन है। मालूम होता है, पहले दो चार अक्षरों या संकेतों के द्वारा ही संगठन का महामंत्र फूँका जाता था। यद्यपि यातायात के साधनों के अभाव में उसे वर्तमान कालीन सफलता एवं विस्तार प्राप्त न होते थे। फिर भी हम देखते हैं कि जिन आन्दोलनों एवं संघर्षों का उल्लेख आगे है वे बात की बात में आग की तरह फैले और काफी दूर तक फैले। संथाल-विद्रोह में तो लाखों की सेना एकत्र होने की बात पाई जाती है और यह बात अँग्रेज अफसरों ने लिखी है। ऐसी दशा में इतना तो मानना ही होगा कि वह चीज भी काफी संगठित रूप में थी, यद्यपि आज वाली दृढ़ता, या आज वाली स्थापिता उसमें न थी। होती भी कैसे? उसके सामान होते तब न?
जैसा कि पहले कह चुके हैं, आज से, प्रायः सौ-सवासौ साल पहले वाले किसान-संघर्षों एवं आन्दोलनों का वर्णन मिलता है। अतः हम उन्हीं से शुरू करते हैं। इसमें सबसे पुराना मालाबार के मोपला किसानों का विद्रोह है, जो १८३६ में शुरू हुआ था। कहने वाले कहते हैं कि ये मोपले कट्टर मुसलमान होने के नाते अपना आन्दोलन धार्मिक कारणों से ही करते रहे हैं। असहयोग-युग के उनके विद्रोह के बारे में तो स्पष्ट ही यही बात कही गयी है। मगर ऐसा कहने-मानने वाले अधिकारियों एवं जमींदार-मालदारों के लेखों तथा बयानों से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि दरअसल बात यह न होकर आर्थिक