m सन् १६३६ ई० की बरसात के, जहाँ तक याद है, भादों का महीना था। मगर वृष्टिं अच्छी नहीं हुई थी और दिन में धूपछाहीं होती थी- बादल के टुकड़े आसमान में पड़े रहते थे। फिर भी धूप ऐसी तेज होती थी कि शरीर का चमड़ा जलने सा लगता था । यों तो बरसात की धूप खुद काफी तेज होती है। मगर भादों में उसकी तेजी और भी बढ़ जाती है। खासकर वर्षा की कमी के समय वह देह को झुलसाने लगती है। ठीक उसी समय सारन (छपरा).जिले के अर्कपुर मौजे में किसानों की एक जबर्दस्त मीटिंग की आयोजना हुई थी। तारीख तो याद नहीं। मगर दैवसंयोग से वह ऐसी पड़ी कि उसी दिन मीटिंग करके रात में सवा दस बजे की ट्रेन पकड़ कर बिहटा के लिये रवाना हो जाना जरूरी था। असल में अगले दिन बिहटा आश्रम में एक सजन किसानों के सवाल को लेकर ही पाने और बातें करने वाले थे। यह बात पहले से ही तय थी। खास उनकी ही जमींदारी का सवाल था। जमींदारी तो कोई बड़ी थी। मगर थे वह सजन हमारे पुराने परिचित । डेहरी के नजदीक दरिहट मौजा उनका ही है। वहीं किसानों का आन्दोलन तेज हो गया था। उसमें मुझे भी कई बार जाना पड़ा था। किसानों के प्रश्न के सामने परिचित या अपरिचित जमींदार की बात ही मेरे मन में उठ सकती न थी। उन्हें शायद विश्वास रहा हो। इसीलिये उनने दूसरों के द्वारा मुझे उलाहना भी दिया था । पर मुझे उसकी पर्वा क्यों होने लगी ? मै तो अपना काम कर रहा था। ताहम जब उनने उसी के बारे में मेरे पास खुद आके बातें करनी चाही तो मैंने खुशी-खुशी उसकी तारीख तय कर दी। यह अर्कपुर गाँव बंगालनार्थ वेस्टर्न रेलवे (यो० ये० रेलवे) के भाटापोखर स्टेशन ते ६ मील दक्षिण पड़ता है। बाबू राजेन्द्र प्रसाद की.
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