( ४७ ) जन्मभूमि जीरादेई के पास से ही एक सड़क अर्कपुर चली जाती है। वहाँ जाने के लिये सवेरे की ही ट्रेन से मैं पहुंचा था। मेरे साथ एक श्रादमी और था। छपरे से श्री लक्ष्मीनारायण सिंह कांग्रेस कर्मों के सिवाय दो और वकील सजन थे जिनका घर उसी इलाके में पड़ता है। भाटापोखर स्टेशन से करीब एक मील दक्षिण-पच्छिम बाजार में ही हमारे ठहरने और खाने- पीने का प्रबन्ध था। हम लोग वहीं गये, लान भी किया, भोजन किया और दोपहर के पहले ही अर्कपुर के लिये चल पड़े। हाथी की सवारी थी। मैं तो इसे पसन्द नहीं करता । मगर किसानों की सभा ही तो थी। अगर उसमें जाने के लिये सवारी मिली तो यही क्या कम गनीमत की बात थी। न जाने कितनी सभाओं में मुझे दूर दूर तक पैदल ही जाना पड़ा है, ताकि मीटिंग ठीक वक्त पर हो-उसमें गड़बड़ी न हो । यदि किसी धनी महाशय की मिहनी से हाथी ही मिला तो नापसन्दी का सवाल ही कहाँ या ? इन- लिये सचों के साथ मैं भी उसी पर बैठ के चल पड़ा। मगर रास्ते की धूप ने हमें जला दिया । बड़ी दिक्कत से दोपहर के लगभग अर्कपुर पहुँच सके । मैंने रास्ते, में ही तय कर लिया था कि लौटने के समय पैदल ही आऊँगा । सवेरे ही रवाना हो नाऊँगा ! रास्ते में तो कोई गड़बड़ी होगी नहीं । वह तो देखा ठहरा ही। लालटेन साय रहेगी। ताकि अँधेरा हो जाने पर भी दिक्कत न हो। इसीलिये सभी लोग अपना कपड़ा-लत्ता वरी- रह सामान टेशन के पास उसी बाजार में ही रख पाये थे, ताकि लौटने में आसानी हो। सभा तो वहाँ हुई और अच्छी हुई। लोग पीड़ित जो बहुत हैं । सरयू- माई निकट में ही दर्शन देती हैं । बरसात में उनकी बाढ़ से सारा इलाका जलमय होता है, फसल मारी जाती है, घरबार चौपट हो जाते हैं और किसानों में हाहाकार मच जाता है। फिर भी जमींदार लोग अपनी वलियों सख्ती के साथ करते ही जाते हैं। मेरे जाने से शायद किसानों को कुछ राहत मिले और उनकी याह बादरी दुनिया को सुनाई पड़े इसीलिप में बुलाया गया था। ऐसी दशा में समा की सफलता तो शेनी हो।
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