पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१११

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. (:५६ :). बोलते हैं और जिनको रहन सहन बिलकुल ही बंगालियों की है, मेरी हिन्दुस्तानी भाषा कुछ ठीक न होगी। और बंगाली बोलना तो मैं जानता नहीं; गो पढ़ या समझ लेता हूँ। तीसरा खयाल यह था कि उनके खास सवालों को तो मैं जानता नहीं कि उन्हीं के बारे में बोल के उनके खयाल अपनी ओर खींच सकू । इसीलिये सिर्फ उन्हीं बातों पर बोलता रहा जो सभी किसानों को आमतौर से खलती हैं और जिनसे अपना छुटकारा सभी चाहते हैं। जैसे जमींदारों के जुल्म, लगान की सख्ती, वसूली में ज्यादतियाँ, कर्ज की तकलीफ, बकाश्त जमीन की दिक्कतें वगैरह वगैरह । मगर मेरा डर और अन्देशा वेबुनियाद साबित हुआ । उनने मेरी बातें दिल से सुनी, गोया मैं वही बोलता था जो वह चाहते थे । बोलने में मेरी जबान और भाषा ऐसी होती ही है कि सभी आसानी से समझ लें। गुजरात से लेके पूर्व बंगाल और आसाम तक मैं यही भाषा बोलता रहा हूँ और किसान समझते रहे हैं । असल में उनके दिल की बात सीधी सादी और चुभती भाषा में अपने दिल से बोलिये तो वे खामखाह याधी: या तीन चौथाई समझते ही हैं और इतने से ही काम चल जाता है। किशनगंज वाले तो सोलह पाना समझते । खासकर मुसलमान कही. भी रहें, तो भी हिन्दुस्तानी जवान वे समझते ही हैं । यह एक खासा बात है। इसलिये जब मैंने मीटिंग खत्म की तो उनने मुझे घेर लिया और कहने लगे कि आपने तो बड़ी अच्छी बातें कही हैं । ये तो हमें खूब ही पसन्द हैं । ये हमारे काम की ही हैं। हमने बहुत से लेकचर मौलवियों के. आज तक सुने हैं। मगर मौलवी लोग तो ऐसी बातें बोलते नहीं । ग्राफ तो रोटी का सवाल हो उठाते हैं और उसी की बातें बोलते हैं। श्राप हमारे पेट भरने और आराम की बातें ही बोलते हैं जिन्हें हम खूब समझते हैं। ये बातें हमें रुचती हैं। सो पार हमारे गांवों में चलिये। कई चलते पुर्जे लोगों ने हठ किया कि मैं उनके गाँवों में चल के ये बातें सबों को सुनाऊँ। क्योंकि वे लोग दूर दूर से आये थे और हर गाँव के एक दो चार