लेकिन हमारा डर सही निकला। आगे का रास्ता और भी विकट था। नदी- नाले भी काफी थे। आखिरकार जहाँ तक जाते बना हम लोग गये। मगर जब गाड़ी का आगे जाना गैर मुमकिन हो गया तो उसे लोटा के हम आगे बढ़े। नदियों में गाड़ी पार करने में दिक्कत भी काफी धी। इसलिये हमने पैदल ही चलना ठीक समझा । नहीं तो शाम तक रास्ते में ही पड़े रह जाते और जहानपुर पहुँची न पाते । श्राज की यात्रा गुजरे दिन की यात्रा से भी मज़ेदार थी। हमें इन घोर देहातों का अनुभव करना जरूरी था। यह भी जांच करनी थी कि हम खुद कहां तक पार पा सकते हैं। क्योंकि बिना ऐसा किये और ऐसी तकलीफें बर्दाश्त किये किसान- आन्दोलन चलाया जा सकता नहीं। यह मजदूर सभा थोड़े ही है कि शहरों में ही मोटर दौड़ा के और रेलगाड़ियों से ही चल के कर लेंगे। इसीलिये सैकड़ों बार हमने छोटी मोटी ऐसी यात्राएँ जान चूमा के की है। अाखिर दूसरे दिन की हमारी यात्रा भी पूरी हुई और जहानपुर पहुंच गये । पं० पुण्यानन्द का एक लगन के श्रादमी हैं । हमने देखा कि गांव बीच में सबसे ऊँची जमीन पर बने झोपड़े को उनने नाश्रम बना रखा है। चरखे वगैरह का काम वहाँ बराबर होता था। कुछ लड़के पढ़ते भी थे। पण्डित जी के एक ही लड़का है। मगर उसे उनने कहीं और जगह जा के पढ़ने न दिया! सरकारी स्कूलों का बायकाट जो किया था! इसीलिये उसे अन्त तक निभाया। हमने प्रायः सभी लीडरों को देखा है कि सन् १९२१ ई. के यायकाट के बाद फिर उनके लटके वगैरद उन्दी सरकारी स्कूलों में भत्ता हुए हैं। मगर ना जी ने ऐसा करना पार समम अपने लड़के को घर पर ही रखा और पढ़ने के बदले लोगों की जो भी सेवा वह अपने ढंग से उस देहात में कर सके उसे ही पसन्द किया। उनका प्राधम बहुत ही साफ सुथरा और रमणीय या । मौनत सून ही रनी, गोला अपने घर पहुँच प्राये । सासफर में सफाई बहुत ही पसन्द करता है। जरा भी गन्दगी हो तो मुझे नींद ही नहीं श्रातो। बेचैन हो जा!
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