पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१२१

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११ सन् १६३५ ई० की किशनगंज वाली यात्रा के ही सिलसिले में हमें कटिहार के बाद कुरसैला स्टेशन जाना और वहाँ से उतर के नजदीक के ही उमेशपुर या महेशपुर में होने वाली विराट किसान-सभा में भाषण देना था । वहाँ से फिर टीकापही आश्रम में जाने का प्रोग्राम था। वहीं रात को ठहरना भी था। हम लोग सदल-बल ट्रेन से रवाना हो गये। स्टेशन पर बाजे गाजे, मंडे और जुलूस की अपार भीड़ थी। लोगों में उमंग लहरें मार रही थीं। किसान-सभा और किसानों के नारों और नाजादी की पुकार से आसमान फटा जा रहा था। स्टेशन के नजदीक ही एक बड़े जमींदार साहब का महल है और सभा-स्थान में जाने का रास्ता भी महल की बगल से ही था। पता नहीं वे वहाँ उस समय थे, या कहीं चले गये थे। यदि थे भी तो उन पर क्या गुजरती थी यह कौन बताये। वे बड़े सख्त जमींदार हैं जो जेठ की दुपहरी के सूर्य की तरह तपते हैं ! उनकी जमींदारी में रहने वाले किसानों का तो खुदा ही हाफिज़ ! मगर माने जाते हैं वे भी कांग्रेसी । कांग्रेसीजनों में उनकी पूछ है। शायद टीकापट्टी आश्रम तथा कांग्रेस की और संस्थानों को साल में काफी अन्न और पैसे उनसे मिलते हैं। जिले के कांग्रेसी लीडरों का सत्कार भी उनके यहाँ होता है। लीडरों को तो अाखिर स्वराज्य लेना है पहले, और जब तक जमींदारों को साथ न लेंगे तब तक स्वराज्य मिलने में बाधा जो खड़ी होगी। अगर उनके बिना वह भी मिल गया तो शायद लँगड़ा होगा। लेकिन यदि किसानों की तकलीफों का खयाल करें तो ये जमींदार कांग्रेस में या नहीं सकते । इसीलिये यहरहाल उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता । सभी को ले के चलना जो ठहरा । यह भी सुना है कि वे जमींदार सहब और उन जैसे दो एक और भी साल में कांग्रेस के वहुत मेम्बर इधर.