( ६६ ) समय इसका ज्ञान था ही नहीं। वे सर्वे का महत्व भी ठीक समझ न सके थे, और वही लिखा पढ़ा अाज उनका गला कतर रहा है । वहीं अल और दलील की गुंजाइश हुई नहीं कि किसान की जमीन पर जमींदार के पेट कैसे हो गये । और अगर अाज भी शहद उतारने वालों को किसान कह दे कि खबरदार, मेरी जमीन पर पाँव न देना, नहीं तो हट्टिा टूटेंगी। हवाई जहाज से जैसे हो ऊपर ही ऊपर उड़के पेड़ पर चढ़ जायो और शहद ले जायो, तो क्या हो ? अाखिर कुछ तो करना ही होगा। नहीं तो काम कैसे चलेगा । जन वे लोग बातें नहीं सुनते तो जैसे को तैसा जवाब देना ही होगा। दूसरा जुल्म यह मालूम हुआ कि वहाँ घाट के नाम से एक देवस लगता है । यह टैक्स दूसरी जमीदारियों में भी पाया जाता है। एक बार तो ऐसा मौका लगा कि हम अपने साथियों के साथ फार्विसगंज के इलाके में बेलगाड़ी से देहात में जा रहे थे । गले में एकाएक कोई आया और गाड़ी रोक के घाट मांगने लगा। पीछे जब उने पता चला कि गाली में कौन बैठा है तब सरक गया और हम आगे बढ़े। बात यह है कि कुछ दिन पहले जहाँ-तहाँ पानी की धारायें उत जिले में बहुत थी। नतीजा यह यह होता था कि लोगों को दाद-बाजार जाने या दूसरे मौको पर नदी दिकातें होती थीं। पार करना मुश्किल था। जान पर खतरा या लिये जमींदार लोग अपनी अपनी जम्दारियो में ऐमी धागोके घाटों पर नायो का इन्तजाम करते थे, ताकि लोगों को श्रागम मिले । शुरू शुरू में पर काम मुफ्त ही होता था। फिर उनने धीरे धीरे नाव यसरद का खर्च पार होने वालों से वसूलना शुरू किया । उसके बाद टीकेदार मुकर कर दिये गये जोशानी ना रखते और चार-पार जाने गालोमा ले लेते थे ! अन्ततोगत्वा जमीदारों ने घाटो को नीलाम करना शुरू किया और जाई ज्यादा पैसे देता वही पवार या पाटके रेटार बनाया। वह अपना खर्च मुनाने के साथ सेवा के रूप में लोगों से बना यही तरीका चार चलता रहा। धीरे धीरे वार गल्ली । उसले बाद वे भात सूख गई और नाव की जरूरत हीन दी ! मगर परमार -
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