( ७३ ) में उन्हें मिलता कुछ भी नहीं । वह तो लुट जाते हैं । शायद एकाध मिठाई मिलती हो! इस प्रकार के जुल्मों और धींगामुश्तियों को कहाँ तक गिनाया जाय । सिर्फ नमूने के तौर पर कुछेक को दिखला दिया है । असल में जब जमींदार लोग किसानों को श्रादमी समझते ही नहीं, इन्सान मानते ही नहीं, तो मुसीबतों की गिनती क्या ? वे तो जितनी हैं सब मिलके थोड़ी ही है ! उनके भार से दवे किसानों का गिरोह उस सभा में हाजिर था। हमने जमींदार और उसके नौकरों की खिदमत सभा में की तो काफी । जले तो पहले से ही थे। किसानों के करण क्रन्दन, उनकी चीख-पुकार ने उस पर नमक का काम कर दिया । फिर तो उबल पड़ना स्वाभाविक था। हमने जालिमों को ऐसा ललकारा और उनकी धज्जियों इस तरह उदाई कि एक बार मुर्दे किसानों में भी जान पा गई । उनने समझ लिया कि उनकी तकलीफों का खात्मा हो सकता है। पहले तो समझते थे कि "कोड रुप' होइ हमें का हानी। चेरि छोड़ि न होउन रानी!" पर एक बार उनकी रगों में गर्मों या गई। सभा के बाद टीकापट्टी श्राश्रम में गये जो कुछ दूर है। रात को वहीं ठहरे । सुबह घूम-धाम के श्राश्रम देखा । वह तो गान्धीवाद का अखाड़ा है। चखें, करचे का कार-बार खूब फैला नजर आया। वहां के रहने वाले. कभी कभी जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ पहले श्रावाज उठाते थे। देहातों में घूम के मीटिंगें भी करते थे। मगर धीरे धीरे यह बात फार होती गई । अब तो यह बात शायद हो होती है। शायद प्रारम्भिक दशा में वहीं जमना था । इसीलिये किसान जनता को महायता जनी थी। श्री तो काफी जम गये ! सम्भवतः नत्र वह प्रश्न छेड़ने की जरूरत नीलिये नहीं पड़ती ! किसान-सभा का बद जमाना या भी शुरू का ही। लोग. समझी न सके ये कि यह किधर जायगी। वर्ग चेतना किमानी में बेटा फरेगी और वर्ग संघर्ष को कापी प्रोत्जदान देगी पर चाल तय कर लोगों के दिमाग में नाई न थी। इसीलिये मुझे भी उस बाधित किया
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