, ( ४ ) उड़ायें न । कैसी नवाबी और तानाशाही है ! चाहे किसानों के प्राण- पंखेरू इसके चलते अन्न बिना भले ही उड़ जाय। मगर चिड़ियाँ उड़ाई जा नहीं सकती हैं। उनका उड़ना जमदार को बर्दाश्त नहीं है ! खूबी यह है कि यही जमींदार साहब लीडरों की कोशिश से गत असेम्बली चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार करीब करीब बनाये जा चुके थे। बड़ी मुश्किल से रोके जा सके। उसी इलाके में महाराजा दरभंगा की जमींदारी में दो बड़े गाँव है, जैसे शहर हों। उनका नाम है महिषी और बनगाँव । दोनों एक दूसरे से काफी दूर हैं, जो बीच में तीसरा गाँव है नहीं। फिर भी प्रायः दोनों साथ ही बोले जाते हैं। वहाँ मैथिल ब्राह्मणों की-महाराजा दरभंगा के खास भाई-बन्धु ग्रों की-बड़ी आबादी है। मधेपुरा के लिये जिस सहरसा स्टेशन से एक छोटी सी लाइन जाती है उसीके पास ही वे दोनों गाँव पड़ते हैं। वहीं उतर के वहाँ जाना पड़ता है । बनगाँव के मजलूम किसानों ने हमारी मीटिंग का प्रबन्ध कर रखा था। मगर हमें यह भी पता था कि महिषी में भी वैसी ही मीटिंग है । वहाँ भी जाना होगा। जाना तो जरूर था, पर रास्ते में कोसी को जलराशि जो बाधक थी। इसलिये बहुत दूर पैदल जाके नाव पर चलना था। दूसरा गस्ता था ही नहीं। आखिरकार बन गाँव की शानदार सभा को पूरा करके हम लोग महिपी के लिये चल पड़े। यों तो पानी सर्वत्र खेतों में फैला था और बनगाँव वाले भी काफी तबाह थे। फिर भी कम पानी होने से छोटो से भी छोटी डोंगी उन खेतों में चन न सकती थी। इसीलिये दूर तक कीचड़ और पानी पार करके हमने डोंगी पकड़ी और चल पड़े। रास्ते में जो दृश्य देखा वह कभी भूलने का नहीं। जो कभी धान के हरे भरे खेत थे वही अाज अपार जलराशि और जंगल देखा । जहाँ कमो धान लहराते और किसानों के कलेजों को चाँसों उबालते थे वहीं 'श्राज कोसी हिलोरें मारती थी-वहीं ग्राज जगल लगता था। नाव पर 'चलते चलते बहुत देर हुई । मगर फिर भी यात्रा का अन्त नहीं। उन खेतों .
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