पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१५९

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( १०४ ) n बार आ चुके थे । सो भी एक जालिम जमींदारी के किसानों का जमाव था। इसीलिये मुझे बड़ी चिन्ता थी ट्रेन पकड़ने की। मगर मोटर के करते साथी जरा निश्चिन्त थे । फलतः खा-पी के रवाना हो गये। मोटर पच्छिम की ओर चल पड़ी। हाँ, यह कहना तो भूली गया कि सरयू नदी की बाढ़ ने लोगों के घरों और उनकी फसलों को वर्णद कर दिया था । सड़कें भी उसने चौपट कर दी थी। रास्ते में बर्बाद गाँवों और घरों को देखते चले जा रहे थे। लोग बाहर निकल-निकल के हमें अभिवादन करते थे। उन्हें हमारी खबर तो थी ही। कुछ लोग सभा से लौटे भी थे । इस प्रकार हम आगे जाई रहे थे कि पता लगा कि आगे सड़क टूटी है । मोटर 'पास' नहीं कर सकती । यदि बगल से जा सके तो जायें । मगर पक्का रास्ता बताने वाला कोई न था। बस, मैं तो सन्न हो गया और जान पड़ा कि कोई गड़बड़ी होने वाली है । कलेजा धक् धक् कर रहा था। मोटर रास्ता छोड़ के खेतों से चली । अन्दाज से ही ड्राइवर चला रहा था । एक तो रात, दूसरे अनजान रास्ता, तीसरे मोटर और खेतों से उसका चलना ! यह गजब की बात थी! हम लाग सचमुच ही मौत के साथ उस समय खेल रहे थे। खेतों से घूमती-घामती और बागों से होती मोटर धीरे धीरे इस ढंग से चल रही थी कि आगे फिर सड़क मिल जायगी, जो ठीक होगी। जरूरत होने पर हममें एकाध उतर के आगे रास्ता देख पाते। तब मोटर बढ़ती । ऐसा होते-होते एक बार एकाएक हममें एक बोल उठा कि "कुयाँ है, कुआँ है।" ड्राइवर ने मोटर फौरन रोक दी । असल में बहुत ही धीमी चाल से चलती थी तभी हम बच सके। नहीं तो मोटर ही कुएँ में जा गिरती। कुयाँ बरसात में घास से छिपा था। जब उसके ऐन किनारे में पहुंचे तभी वह नजर अाया और हम लोग बाल बाल बचे। फिर आगे बढ़े। मगर सड़क लापता थी। हालांकि अपने खयाल. से हम लोग उसके नजदीक से ही चल रहे थे। असल में तो हमें सत्ता ही नहीं मिला कि सड़क की ओर बढ़े। सर्वत्र कीचड़-पानी से ही भेट होती