( १४२ ) स्वराज्य कैसे मिलेगा यह समझ में न पाया । शायद उन्हें अपने स्वराज्य की पर्वा कतई थी नहीं। कदाचित् जेल आये ये वे इसीलिये कि उनकी लीडरी खतरे में-थी-छिन जाती। अगर उसे उनने बचा लिया तो यही क्या कम है ? उसीसे कमा खायेंगे। अाज लीडरी भी एक पेशा जो बन गई है। मगर, अगर हिटलर के आ जाने से वह लीटरी भी छिन जाय, तो छिन जाय बला से। उसीके साथ वि.सान सभा भी तो खत्म होगी। बस, इतने से ही उन्हें सन्तोप था। इसे ही कहते हैं "श्राप गये अर घालहिं अानहि" या "दुश्मन की दोनों आँखें फोड़ने के लिये अपनी एक फोड़ लेना !” हमें तो साफ ही मालूम हुआ कि कांग्रेस एक अजायबघर या चिडियाखाना । (Museum cr 200) है जिसमें रंग-बिरंगे जीव पाये जाते हैं ! गुलाम भारत की विकट परिस्थिति के चलते ही उसकी स्थिति है। क्योंकि राष्ट्रीय संस्था के अलावे और कोई भी संस्था अंग्रेजों का मुँहतोड़ दे नहीं सकती, उनसे सफलतापूर्वक लोहा ले नहीं सकती। इसी- लिये कांग्रेस को हर हालत में मजबूत बनाना हर विचारशील माननीय का फर्ज हो जाता है । अंग्रेजी सरकार की मनोवृत्ति और सलूक उसे लड़ने को विवश मी करते हैं। यही है परिस्थिति वश कांग्रेस की विलक्षणता और मान्यता । मगर उसमें रंग-बिरगे जीव तो हुई। हजारीबाग जेल में रोजाना दस ग्राना मिलता है खुराक के लिये । कपड़े-लत्ते टूथ-ब्रश, पाउडर, साबुन वगैरह अलग ही मिलते हैं। इतने पर भी एक 'टुटपुंजिये' नमींदार महोदय को तमक के कहते पाया कि "वष्ट मोगने के लिये तो हम जमींदार लोग हैं और स्वराज्य लेने या जमींदार्ग मिटाने की बात किसान करते हैं। देखिये न, यह कितनी अन्धेर है !" क्या खूब ! वे हजरत इतने कष्ट में थे कि कुछ कहिये मत ! दम पाने हनम करने में क्या कम कष्ट है ? और ये पाउडर, ब्रश श्रादि १ इनका प्रयोग तो उन्हें बाहर शायद ही कभी मुत्सर हुया हो । इसलिये इससे भी उन्हें काफी कष्ट या । प्रतिदिन दस ग्राना खामखाइ हनम करना यह तो श्राफत ही थी । यदि कमी कम-वेश होता तो एक बात थी। मगर रोज ।
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