( १४३ ) , ही पूरे दस आने ! यही तो गजब था! पता नहीं, छूटने के दिन वे ३०-~ ४० पौंड वजन में बढ़े हुए गये या कि कुछ कम ! उनके बारे में हमें केवल इतना ही कहना है कि किसानों ने उन्हें कभी नहीं कहा था कि जेल के ये कष्ट वे भोगें । वे तो खुद आये थे। फिर किसान उनके साथ क्यों रियायत करेंगे, यही समझ में न आया। दरअसल बात तो कुछ . दूसरी ही थी । वह तो पहले समझते थे कि स्वराज्य होगा किसानों और जमींदारों के साझे का, और बँटवारे के समय हम किसानों को ग्वाले के छोटे भाई की तरह ठग लेंगे। मगर किसान-सभा ने इस बात का पर्दाफाश कर दिया और कह दिया है कि साझे का स्वराज्य होई नहीं सकता । बस, इसीसे उन्हें क्रोध था। कहते हैं कि किसी गाँव में दो भाई ग्वाले साथ ही रहते और कमाते खाते थे। बड़ा भाई था काफी चालाक । कमाता वह था नहीं । कमाते. कमाते मरता था छोटा भाई ही। मगर खान-पान में बड़ा आगे ही रहता था। फिर भी छोटे को पर्वा न थी। मगर यह बात आखिर चलती कब तक १ अन्ततोगत्वा एक दिन छोटे को भी गुस्सा आया और उसने कहा कि हमें जुदा कर दो, साथ न रहेंगे। बड़े ने पहले तो काफी कोशिश की कि यह बात न हो। मगर छोटे को जिद्द थी। इसलिये लाचार सभी चीजों का बँटवारा करना ही पड़ा। और चीजों में तो कोई दिक्कत न थी। मगर दस-पन्द्रह सेर दूध देने वाली ताजी व्याई एक भैंस थी। उसका बँटवारा. कैसे हो, यह बात उठी। लोटा-थाली हो तो एक एक बाँट लें। अन्न और पैसे आदि में भी यही बात थी। मगर भैंस तो एक ही थी। दो होती तो और बात थी। अब क्या हो ? दोनों को कुछ सूझता न था । अक्ल के पूरे तो थे ही बड़े हजरत । उनने रास्ता सुझाया। भैंस का आधा भाग तुम्हारा और आधा हमारा रहे, जैसे घर में आधा आधा दोनों ने लिया है। छोटे ने मान लिया। अब सवाल उठा कि भैंस का कौन हिस्सा किसे मिले ? यहाँ पर बड़े भाई ने चालाकी की और छोटे से कहा कि देखो भाई,. तुम्हें मैं बहुत मानता हूँ। इसीलिये चाहता हूँ कि यहाँ भी तुम्हें अच्छा
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