, ( १४४ ) ही हित्ता दूं। यह तो जानते ही हो कि भैत का मुँह कितना सुन्दर है, किस प्रकार पारी करती है। उसकी सींगें कितनी चमकीली और नुड़ी हुई है, कान, आँख वगैरह भी देखते ही बनते हैं। विपरीत इसके चूतड़ का हित्वा कितना गन्दा है। उस पर बराबर गोवर-मूत लगा रहता है जिते -रोज बोना पड़ता है। मैंन बार बार गोवर-मूत निकालती ही रहती है। अगर एक दिन उसे उठाके न फेंके तो रहने की जगह नर्क ही हो जाय ! लेकिन तुम्हारे करते मैं लाचार होके उसका पिछला हित्वा ही लूँगा और गोवर-मूत फेकूँगा। तुम्हें अगला भाग देता हूँ। बस, बँटवारा हो गया। खुश हो न १ छोटे ने हामी भर दी। अब तो ऐसा हुआ कि छोर भाई रोज मैंस को खूब खिजाता पिलाता और बड़ा धीरे से दोनों समय उनका दूध निकालता और मजा करता। यह बात कुछ दिन चलती रही। छोटे को इस बीच दही, दूव कुछ भी देखने तक को न मिला | कमी कभी वह घबराता था जरूर । मगर सीधा तो था ही। अतः संतोष कर लेता कि क्या किया नाय ? बँटवारा जो हो गया है। वन, शिर काम में लग जाता था। इस प्रकार मिहनत करते करते मरता था वह और मजा मारता या बड़ा। कितना सुन्दर न्याय या ! कैसा सुन्दर प्रेम बड़े ने छोटे भाई के प्रति दिखाया। उसके सीधेन से उसने कैचा वेजा नप्त उठाया ! मगर यह अन्वेर टिक न सकी। टिकती मी क्यों? एक दिन छोटे भाई का परिचित कोई सयाना आदमी उसके घर प्रास। छोटे ने उसका आदर-सत्कार किया। भोजन भी अच्छा खिलाया। नगर दही-बूध नदारद! आगन्तुक को तान्जद हुआ कि हाल की व्याई सुन्दर भैस दरवाजे पर बंधी है । दूव भो काजी देती होगी। यह शख्स नेग तचा दोत्त भी है। फिर भी मुझे इसने न दूध दिया और न दही मैंने गौर करके देखा तो इतके घर में ये कनें नजर भी न पाई। यह क्या बात है । उन्ने बोटे से यही सवाल किया भी। उनने उचर दिया कितो तो सही है। मैं तो है। नगर बारे में मेरे पहले उनका अगला
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