(१६५ ) इन्हें समझते और बोलते हैं। लालटेन और रेल शब्द गोया हिन्दी भाषा के ही हों ऐसे मालूम पड़ते हैं। हमें पता ही न चला कि हम इन्हें हजम कर रहे हैं । सभा की जगह मीटिंग कहना हमें अच्छा लगता है। ठीक इसी प्रकार मुसलमानों के जमाने में हमने फारसी और अरबी शब्दों से अपनी भाषा का खजाना भरा है । तब अाज हिचक कैसी ? श्राज जिस खड़ी बोली में साहित्य तैयार करने पर हम तुले बैठे हैं आखिर वह भी तो यों ही धीरे धीरे बनी है, बनती जा रही है । संस्कृत, पाली या प्रकृत को यह रूप धीरे धीरे मिला है हजारों साल के बाद । इसी तरह अरबी या फ़ारसी को उर्दू की शकल मिली है। विकास तो संसार का नियम ही है। हिन्दी और उर्दू के सम्मिश्रण से जो नई भाषा तैयार होगी वही हमारी जरूरत को पूरा कर सकेगी। उसीके सहारे यह मुल्क आगे बढ़ेगा । हम हजार चिल्लाये और छाती पीटें। मगर यह बात होके रहेगी। फिर समय रहते ही हम क्यों न चेत जाय और इसी काम में मददगार बन जाय । यह जो नाहक का बबन्डर हम खड़ा कर रहे हैं उससे हाथ तो खिंच जाय । भाषा हमारे लिये है, न कि हमी भाषा के लिये हैं। लेकिन हमारी आपसी तू तू, मैं मैं, में कहीं हमी पिछड़ न जायँ, मिट न जायें, यह सोचने की बात है। श्राज तो पशु-पक्षियों और पेड़-पौदों में सम्मिश्रण के जरिये नई नई नसलें पैदा की जा रही हैं जो हमारी बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा कर रही हैं। पुराने पशु-पक्षी और पेड़-पौदे इस बात के लिये नाकाबिल सिद्ध हो चुके हैं कि अब हमारी जरूरतों को पूरा कर सके । इसीलिये इस युग को 'कासव्रीड्स' (oross-breeds) का युग कहते हैं । यही बात हमारी भाषा के बारे में क्यों न लागू हो ? अाज हजार यत्न करके भी लैटिन को प्रचलित नहीं कर सकते हैं । वह पुरानी पड़ गई है। इसी प्रकार संस्कृत, अरबी और फारसी की माया आम जनता के लिये हमें छोड़ देना होगा । सो भी प्राधे मन से नहीं, सच्चे दिल से । खामखाह संस्कृत और अरबी-फारसी के नये नये शब्दों को ढूंढ़ या गढ़ के सार्वजनिक भाषा की ,
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