पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२४५

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( १.८६ ) -लोग वैसे ही बुरा मानेंगे या नहीं, जैसा कि तैयारी हो जाने पर हमारे यहाँ नेताओं के न पा सकने पर हम मानते हैं, यह बात भी वे लोग साधारण- तया सोचते ही नहीं। फिर ठीक समय मीटिंग को पूरा करने की सारी तैयारी वे करें तो कैसे करें? लेकिन यह तो हमारे जवाबदेह कार्यकर्ताओं का ही काम है कि ये सारी बातें सोचे और उसी हिसाब से ऐसा प्रबन्ध करें कि ठीक समय पर सारा काम पूरा हो जाय । देहात के लोगों के कह देने पर ही सारी बात का विश्वास कर लेना बड़ी भारी गलती है। हमें उन लोगों की कमजोरियों को बिना कहे ही अपने ही अनुभव के आधार समझ लेना और तदनुसार ही काम करना चाहिये । इस सम्बन्ध के कटु अनुभव मुझे यों तो हजारों हुए हैं और उनसे काफी तकलीफ भी हुई है। मगर कभी कभी भीतर ही भीतर जल जाना 'पड़ा है। खासकर जब बड़े लीडर कहे जाने वालों ने ऐसी नादानी की है। इस बात की चर्चा एकाध बार पहले ही की जा चुकी है। मगर एक घटना बहुत ही मार्के की है । सन् १६३६ ई० की बरसात गुजर चुकी थी। किसान लोग रवी बोने की तैयारी में खेतों को ठीक कर रहे थे। धान की फसल अभी तैयार न हुई थी । खेतों में ही खड़ी थी। मगर बरसात का पानी रास्तों से ग्रामतौर से सूख चुका था । जहाँ तक अन्दाज है कार्तिक महीने की पूर्णमासी अभी बीती न थी। ठीक उसी समय पटना जिले के बाढ़ सब-डिविजन के हमारे एक किसान नेता ने मेरे दौरे का प्रोग्राम तय किया । और मीटिंगों के अलावे उनने एक ही दिन दो मीटिंगों का प्रबन्ध किया । एक फतुहा थाने के उसफा गाँव में और दूसरी हिलसा थाने में हिलसा में ही। जब मुझे पता चला तो मैंने कहा कि देहात की मीटिंग के साथ दूसरी मीटिंग भी हो यह शायद ही सोचा जा सकता है जब तक कि मोटर का रास्ता न हो। लेकिन उनने न माना। जब मीटिंग के दिन हम फतुहा स्टेशन आये तो मैंने उसफा के बारे में बार बार पूछा कि कितनी दूर है, रास्ता कैसा है, आदि आदि । उत्तर मिला कि बहुत दूर तक तो टमटम जायगा। फिर नदी के बाद: तीन बार .