, - ( १८७ ) मीन हाथी से जाना होगा। मगर मेरे दिल ने यह बात नहीं कबूल की। खूबी तो यह थी कि मीटिंग के बाद हाथी से ही ४.५ मील चलके लाइट रेलवे की गाड़ी पकड़ना और शाम तक हिलसा भी पहुँचना जरूरी था। मैंने उनसे साफ कहा कि यह बात गैर मुमकिन है। मुझे जो देहातों का अनुभव है उमके बल पर मैंने उन्हें साथ चलने से रोका और हिलसा जाने को कहा । उनसे. यह भी साफ कह दिया कि हिलसा श्राने की मेरी उम्मीद छोड़ के आप खुद मीटिंग कर लेंगे । हाँ, अगर मुमकिन हुआ तो मैं भी आ जाऊँगा । मगर मेरी इन्तजार में श्राप कहीं बैठे ही न रह जायें । इसी समझौते के अनुसार मैं टमटम पर बैठ के एक कार्यकर्ता के साथ उसफा की ओर चला, इस अाशा ने कि जहाँ हाथी खड़ा रहने का इन्तजाम है वहाँ तक जल्दी पहुँच जाऊँ। मगर गैर जवाबदेही का एक नमूना फतुहा में ही मिला, जब हमारा टमटम सदर सड़क छोड़ के गली से चलने लगा। कुछ देर के बाद गली बन्द थी और उसकी मरम्मत के लिये पत्थर की गियिाँ पड़ी थीं ! बड़ी दिक्कत हुई । टमटम जाने की उमीद न थी। बहुत ही परीशानी के बाद जैसे-तैसे टमटम पार किया गया। वह परीशानी हमीं जानते हैं । फिर टमटम बढ़ा कुछ दूर-कुछ ज्यादा. दूर-जाने के बाद साइकिल से दौड़ा हुश्रा एक आदमी हमारे पीछे अाता था और हमें पुकारता था। मगर देर तक हम उसकी आवाज सुन न सके और बढ़ते गये। जब वह नजदीक या गया तो उसकी पुकार हमने सुनी। उसने कहा कि हाथी तो स्टेशन पर आ गया है, आप वहीं लौट चलें । हम घबराये और सोचा कि यह दूसरा संकट अाया। लौटेंगे तो फिर उसी गली में टमटम निकालने की बला श्रायेगी। इसलिये साइकिल वाले से कह दिया कि जायो श्रीर दायी वहीं भेजो जहाँ पहले भेजने का तय पाया था। क्योंकि तुम भी तो कहते ही हो कि भूल से हाधीवान उसे स्टेशन ले गया है। इस पर वा, बेचारा लौट गया। हम आगे बढ़े। मगर कुछी दूर और चलके टमटम वाले ने कह दिया कि “स, बाबू जी, अब श्रागे टमटम जान सकेगा।
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