पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२५३

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( १६४ ) , था । सवारी की यह आखिरी दिकत ऐन मौके पर बहुत ही अखरी । किन्तु लाचार था । एक दो मील चला गया। शाम हो रही थी। दूध भी न पी सका था । अतएव आगे के गाँव वालों ने रोका । वे भी सभा में गये थे। एक वैष्णव ब्राह्मण ने बाहर ही कुएँ पर कम्बल डाल के मुझे बिठाया और फौरन ही गाय का दूध दुहवा के मुझे पीने को दिया । इतने में कुछ देर हो गई और बूढ़ा हाथी भी आ पहुँचा । मैं उस पर चढ़ने में हिचकता . था। इसके लिये तैयार न था । मगर लोगों ने हठ किया । रात का समय और अनजान रास्ता । कीचड़ पानी से होके गुजरना, सो भी आठ दस मील । टेढ़ी समस्या थी। दिन रहता तो पैदल ही चल देता खामखाह । मगर अन्धेरी रात जो थी । इसलिये मजबूरन हाथी पर बैठना ही पड़ा । एक लालटेन भी आई रास्ता दिखाने के लिये, मगर वह ऐसी मनहूस थी कि रोशनी मालूम ही न होती थी। फिर भी दूसरी थी नहीं। इसलिये वही साथ ली गई । लेकिन वह फौरन ही बुझ गई। अतएव पुकार के उसके मालिक के हवाले उसे हमने कर दिया और अन्धेरे में ही अन्दाज से चल पड़े। आखिर करते ही क्या १ हाथी एक तो बूढ़ा और कमजोर था। दूसरे थका भी था हमारी ही तरह । क्योंकि अभी अभी स्टेशन से वापिस श्राया था। तीसरे भूखा था। भलेमानसों ने उसके खाने का कोई प्रबन्ध किया ही नहीं और मेरे साथ उसे फिर चला दिया। यह अजीब बात थी। और अगर रात न होती तो वह भूखों ही मरता । एक कदम बढ़ता भी नहीं, लेकिन रात होने से उसका काम चालू था। हाथी तो रास्ते के खेतों में खड़ी फसल को नोचता-खाता ही चलता है । यही तो उसकी गुजर है। दिन में खेतवाले सजग रहते और चिल्लाते हैं, तूफान करते हैं। इसलिये फीलवान हाथी को रोकता-डांटता चलता है जिससे उसका घात शायद ही ... लगता है। मगर रात में तो यह खतरा था नहीं। इसलिये हाथी का स्वराज्य धान के हरे हरे खेत खड़े थे। उन्हीं से होके हम गुजर रहे थे। हाथी खाता चलता था । किसानों की फसल की इस तरह तबाही हमें खलती जरूर थी। इसीलिये आमतौर से हम हाथी पर चढ़ते नहीं । मगर