पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२५४

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( १६५ ) हाथी की भूख को देख के हम भी मजबूर थे और हाथीवान से उसे रोकने की बात कहने की हिम्मत हमें न थी। इस प्रकार चलते चलाते एक नदी के किनारे चलने लगे। मालूम हुआ कि यह आम रास्ता फतुहा जाने का है। अब हमें यकीन हुआ कि रास्ता भूले नहीं हैं । ठीक ही जा रहे हैं। कुछ दूर यों ही चलते रहे फिर वह नदी हमें छोड़ के जाने कहाँ भाग निकलो । नदियों की तो चाल ही टेढ़ी-मेढ़ी होती है। फिर उनकी किससे पटे। जो वैसी ही चाल के अभ्यासी हों वही उनके साथ निभ सकते हैं। हमें तो जल्दी थी फतुहा पचहुँने की । घड़ी पास ही थी । रह रहके वक्त देखते जाते थे। अब हमें दर हो गया कि ट्रेन पकड़ न सकेंगे। क्योंकि अन्दाजा था कि फतुहा अभी है। इतने में ही ट्रेन की रोशनी नजर आई । हमने देखा कि पूरब से पच्छिम धधक्-चकमक करती रेलगाड़ी चली जा रही है। उसे हमारी क्या पर्वा थी। अगर उसके भीतर दिल नाम की कोई चीज होती और हमारा पता उसे होता तो शायद हमारे भीतर मचने वाले महाभारत को वह महसूस कर पाती। फिर भी हमारे लिये रुकती थोड़े ही। जो लोग समय के पाबन्द हैं और उसकी पुकार सुनते हैं वह किसी की पर्वा न करके धागे बढ़ चलते हैं, बढ़ते ही जाते हैं । यही खयाल उस समय हमारे माये में घूम गया । अपनी विफलता में भी इतनी सफलता, यह शिक्षा हमें मिली। हमने इसी से सन्तोष किया। हाथी चलता रहा । इतने में लाइट रेलवे की ट्रेन मी दक्षिण ते नाई और चली गई । हम टुक-टुक देखते ही रह गये । अाखिर चलवे चलाते हम भी फतुहा के नजदीक पहुँचे । जब हम पफी सड़क पर भाये तो हमें दो साल पहले की एक घटना याद आई । हमें ऐसा लगा कि मनुहा के पास हमें बराबर दिकते होती है, खासकर हिलसा के प्रोग्राम में। दो साल पहले भी ऐसा ही हुआ था कि दिलन में मीटिग करके हम लोग टमटम से ही फतुहा चले ये ट्रेन पकड़ने । ट्रेन तो हमें मिली थी। मगर पास में पहुँचने पर उसी पफी सड़क पर मरते मरते बचे । बाज पहुई . 1