पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२५५

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( १६६ ) पाई। कि रात हो गई थी और जिस टमटम से हम लोग पा रहे थे वह था हिलसा का ही। ज्यों ही वह उस स्थान पर पहुंचा जहाँ एक पुल है और दो सड़कें मिलती है त्यों ही एक बैलगाड़ी आगे मिली। टमटम वाले ने चाहा कि टमटम को बगल से निकाल दें। मगर उसके ऐसा करते ही घोड़ा पटरी के नीचे उतर गया और औंधे मुँह गिर पड़ा । असल में वहाँ सड़क के बगल में बहुत गहराई है। अगर टमटम उलटता तो हममें एक की भी जान न वच पाती। सभी खत्म हो जाते। मगर घोड़े के गिर जाने पर भी टमटम कैसे रुक गया यह अजीब बात है। हमारे साथी नीचे गिर पड़े। टमटम लटक के ही रह गया । उलटा नहीं । मगर मैं उसी पर बैठा ही रह गया। मेरे सिवाय सबों को चोट भी थोड़ी बहुत घोड़ा तो मरी जाता अगर झटपट हम लोग टमटम से अलग उसे न कर देते और उठा न देते। खैर, वह उठाया गया और जैसे तैसे स्टेशन के नजदीक पहुँचा। उस दिन को घटना हमें कभी नहीं भूलती। ऐसी ही घटनायें किसान-सभा के दौरे में दो एक बार श्रीर भी हुई हैं। मगर इस बार की थी सबसे भयानक । हम तो बाल-बाल बचे। सो भी मुझे कुछ मी न हुआ। वही घटना हमें उस दिन स्टेशन पर फिर याद आ गई कि हम उसी मनहूस स्थान पर पहुँच गये। हाथी वहां से आगे बढ़ा और हम स्टेशन के दक्षिण रेलवे लाइन की गुमटी पर ही हाथी से उतर पड़े। हमें ऐसा मालूम हुश्रा कि किसी वीरान से आ रहे हैं जहाँ न रास्ता हो और न कोई सवारी शिकारी। गाड़ी तो कमी की छूट चुकी थी । अब हमें उसकी फिक्र न थी । बल्कि इस बात की खुशी थी कि खैरियत से हम इस भयंकर यात्रा से लौट के स्टेशन तो पहुंचे। असल में एक चिन्ता के रहते ही अगर उससे भी खतरनाक बात सामने श्रा जाय तो चिन्ता खुद काफूर हो जाती है और नया खतरा आँखों के सामने नाचने लगता है। हमारी यही हालत गई थी। हम स्टेशन पहुँचेंगे या नहीं, पहुँचेंगे भी तो कब और किस सूरत में, हाथ पाँव टूटे होंगे, या खैरियत से होंगे, आदि वातें हमारे दिमाग में भर रही थीं। हमें .