पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(. १६७ ) फिक यही थी कि किसी सूरत से स्टेशन पर सकुशल पहुँच जायें। यही वजह है कि पहुँच जाने पर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। स्टेशन पर जाने के बाद दिकत हुई सोने की। सोने का सामान तो पास था नहीं । वह तो ट्रेन से चला गया था। यहाँ तक कि हाथ पांव धोने के लिये पानी लाने का लोटा भी नहीं था। इसलिये वेटिंग, रूम में चुपके से अन्वेरे में ही जा पड़े। मगर थोड़ी देर बाद स्थानीय कबीर-पंथी मठ के कुछ विद्यार्थी हमें ढूँढ़ते आये। वे महन्त के जुल्म से ऊबे ये और हमारी प्रतीक्षा में थे। ट्रेन के समय खोज के लौट गये थे। वे फिर आये और हमें अपनी जगह लिवा ले गये। उस समय हम उनकी कुछ खास मदद कर न सके। फिर भी रास्ता बता दिया। सुबह की ट्रेन से इस निहटा'चले गये।