पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२६४

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( २०५ ) बाजे बाँसरी" क्यों नहीं करते ? उनने कहा कि "हाँ, यह तो ठीक है।" फिर उनके एक दूसरे खयाल पर भी मैंने उन किया। नई पार्टी के लिये पैसे का प्रश्न था । बिना आर्थिक संकट पार किये कोई भी पार्टी चल नहीं सकती। इसीलिये उनने इस मसले का भी हल सुमाया था। मगर मैं उससे और भी चौंका । मुझे साफ मालूम हो गया कि ऐसा होने पर ऐरे-गैरे मनचले लोगों की भी आसानी से हो सकेगी। आर्थिक झमेले हल हुए और पैसे की दिक्कत नहीं कि मेम्बर बनने वालों का तांता बँधेगा। वह तो यही मजा चाहेंगे-"जो रोगी को भाये सोई वैद्य बताये" वाली बात यहाँ सोलहाँ अाने ठीक उतरेगो । असल में पैसा जमा करने का जो उपाय उनने सुझाया वह यह न था कि हम किसान मजदूर जनता से थोड़ा थोड़ा करके जमा करेंगे। इस बात का तो उनने नाम ही न लिया। बँद बूंद करके तालाब भरने का खयाल उन्हें रहा ही नहीं। उनके सामने लम्बे लम्बे प्रोग्राम और खर्च के मद थे। गर्ग का प्रेम, अखबार, औफिम, साहित्य, दौरा वगैरह ऐसी बातें थीं जो उनके दिमाग में चक्कर काट रही थीं। और इनके लिये तो काफी पैसा चाहिये ही। मेम्बरों को भी तो आराम से रखना ही होगा। नहीं तो उनके डटने में दिक्कत का खयाल था। और पचीस हजार की तादाद भी काफी बड़ी होती। वर्तमान समय के मुताबिक उनका खर्च-वर्च भी कम नहीं ही चाहिये । चवेनी और सत्तू या सूवी रोटी खा के तो क्रांति हो नहीं सकती। इस प्रकार तो क्रांतिकारी लोग गुजर कर सकते नहीं। इसलिये महीने में कई लाख रूपये उनके खर्च के ही लिये चाहिये । यह साफ ही है कि इतना कण्या गरीब लोग दे सकते नहीं। पैसे-वैसे 'करके उनसे इतनी लम्बी रकम वसूल करना गैर मुमकिन ही है। मांतिकारी लोग ऐसा मामूली काम करने के लिये होते भी नहीं । उनका काम बहुत बड़ा होता है। यह तो छोटे लोगों का-मामूली वर्करों का काम होता है। इसलिये पैसा जमा करने का कोई दूसरा ही रास्ता होना चाहिये, उनने यही सोचा । बताया भी ऐसा ही। खाती रकम हाथ लगने का रात्ता ही उनने ,