सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७

निर्जीव प्रोग्राम बनाकर किसानों को अपने साथ अन्ततोगत्वा ले चलने में समर्थ नहीं हो सकती, यह ध्रुव सत्य है।

यदि किसान-सभा स्वतंत्र न होकर कांग्रेस का अंग या उसका एक विभाग मात्र हो तो वह न तो स्वतंत्र आन्दोलन ही कर सकती और न वैसा प्रचंड वायुमंडल ही बना सकती, जो कांग्रेस पर दबाव डाल कर उसे आगे बढ़ाये और प्रगतिशील बनाये। क्योंकि ऐसी किसान-सभा कांग्रेस के निश्चय का ही मुँह देखेगी और तदनुसार ही चलेगी अनुशासन के खयाल से। वह स्वतंत्र रूप से कोई भी काम या आन्दोलन कर नहीं सकती।

और आखिर यह मुआविजा क्या बला है? क्या इससे किसानों का लाभ है? क्या यह किसान-हित की दृष्टि से दिया जाने को है? साफ शब्दों में कहा जा सकता है कि यह तो किसानों के भविष्य को पहले से ही मुस्तगर्क करना या जकड़ देना है। उनके भविष्य को पहले से ही बाधक रख देना है। आगे चलकर उनके लिये यह बड़ा रेड़ा सिद्ध होगा। आखिर ये रुपये किसानों से ही तो वसूल होंगे। आज जो भी कर्ज इस मुआविजे को चुकाने के लिये सरकार लेगी उसका भार किसानों पर ही तो पड़ेगा, वह उन्हीं से तो सूद के साथ वसूल होगा। जो भी रुपया कर्ज लेकर या सरकारी खजाने से दिया जायगा वही अगर किसान-हित के कामों में खर्च होता तो वे कितने आगे बढ़ते? यही रुपये यदि उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य-सुधार, ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, खेती की तरक्की, मार्केटिंग के प्रबन्ध आदि में खर्च हों तो सचमुच किसान प्रगति की छलाँगें मारने लगें। यही वजह है कि किसान-सभा इस मुआविजे की सख्त मुखालिफत करती है।

कहा जाता है कि किसान-सभा ने १९३७ में बने कांग्रेसी-मंत्रि-मंडलों को काफी परेशान और बदनाम किया। मगर यही तो कहने का भद्दा तरीका है। विरोध का सदा स्वागत किया जाता है। जब तक विरोध न हो ठीक रास्ते पर कोई नहीं चलता। विरोधी ही अधिकारारूढ़ दल की कमजोरियों को बताकर उन्हें सँभलने का मौका देते हैं। यदि मोटर और इंजिन में ब्रेक न हो तो पता नही मोटर और रेल कहाँ जा गिरें? और आखिर यह