लिये उनमें एक भी तैयार न था। बल्कि वनने के बहुत पहले ही उनमें प्रमुख लोगों ने विरोध शुरू कर दिया । यहाँ तक कि इसमें शामिल होने के विरुद्ध सूचना बाँटी गई प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी की ओर से । इतना ही नहीं। सोनपुर के बाद ही जब उन लोगों की सम्मति चाही गई तो बाबू अजकिशोर प्रसाद ने, जो उस समय कांग्रेस के दिमाग माने जाते थे, इसका सख्त विरोध किया और साफ कह दिया कि यह खतरनाक चीज बनने जा रही है । अतः मैं इसके साथ नहीं हूँ। यह ठीक है कि और लोगों ने उस समय इनकार नहीं किया। सच तो यह है कि ऐसा करने का मौका ही उन्हें नहीं मिला। वे समझी न सके कि किसान-सभा ऐसी चीज बन जायगी। क्योंकि पीछे यह बात समझते ही कुड़बुड़ाहट और विरोधी प्रोपेगैन्डा शुरू हो गया । यह भी ठीक है कि औरों का नाम देख एकाध ने उलाइना भी दिया कि हमारा नाम क्यों नहीं दिया गया । इसीलिये उनका नाम पीछे जोड़ा गया भी। मगर इससे वस्तु स्थिति में कोई फर्क नहीं पाता । नाम दे देने से कोई भी सभा का स्थापक नहीं कहा जा सकता। सौ बात की एक बात तो यह है कि यदि सभा की स्था- पना का श्रेय कोई चौथा भी लेना चाहता है तो उसका नाम क्यों बताया नहीं जाता ? क्योंकि तब तो स्पष्ट पूछा जा सकता है कि उसने इस सम्बन्ध में कब क्या किया ? यह तो उसे बताना ही होगा । इसलिये केवल गोल-गोल बातों से काम नहीं चलेगा । नाम और काम बताना होगा।
मगर हमें तो इसमें भी झगड़ा नहीं है कि किसने यह काम किया। इतना तो असलियत के लिहाज से ही हमने कहा है। फिर भी यदि किसी को वैसा दावा हो-तो हम उसकी खुशी में गड़बड़ी क्यों डालें ? हमें क्या ? सभा चाहे किसी ने बनाई। मगर वह जिस सूरत में या जिस प्रकट विचार से पहले बनी अब वह बात नहीं रही । धोरे-धोरे अनुभव के आधार पर वह आगे बढ़ी है और अब उसमें सोलहों अाने रूपान्तर श्रागया है । यह ठीक है कि वह किताबी ज्ञान के आधार पर न तो बनी ही थी और न वर्तमान रूप में प्राई ही है । इसीलिये इसका प्राधार बहुत ही टोउ है।