लया था। क्योंकि कहने के लिये कुछ और व्यवहार में कुछ दूसरा ही पाया । यही सन् १६२२ ई० में भी देख चुका था। मैं सोचता कि १६२२ की बात तो पहले पहल की थी। अतः भूलें संभव थीं । मगर जब ८-१० साल के बाद बजाय उन्नति के उसमें बुरी अवनति देखी। तो विराग होना त्वाभाविक था। सोचता था, ऐसी संस्था में क्यों रहूँ जिसकी बातें केवल दिखावटी हों और सख्ती के साथ हर हालत में जिसके सदस्यों की नियम- पाबन्दो का कोई इन्तजाम न हो । ऐसी संस्था तो धोखे की चीज होगी और टिक न सकेगी। हम अपने ईमान को धोखा देते-देते जनता को भी जिसकी सेवा का दम हम भरते हैं, धोखा देने लग जायगे । इसीलिये सन् १६३२ ई० में पुराने दोस्तों और साथियों के हजार कहने-सुनने पर भी मैं संघर्ष में न पड़ा । फलतः बाहर ही पड़ा तमाशा देखता था।
बिहार ही ऐसा प्रान्त उस समय था जहाँ कांग्रेस के सिवाय कोई भी सार्वजनिक संस्था जमने पाती न थी। मुसलिम लीग, हिन्दू सभा या लिबरल फिडरेशन तक का यहाँ पता न था। किसान-सभा तो यों बन सकी कि उसमें दूसरे लोग थे ही न । यह भी बात थी कि लोग समझते थे कि यह तो खुद ही खत्म हो जायगी। क्योंकि किसी खास मतलब से ही बनी मानी जाती थी और वह मतलब शीघ्र ही पूरा हो जाने वाला माना जाता था। हर हालत में इसे कांग्रेस के विरुद्ध न जाने देने का इरादा लोगों ने कर लिया था। यही कारण है कि शुरू के पाँच छे वर्षों में हमें भी फंक-फूंक के पाँव देने पड़े थे। और यह सभा भी सन् १९३० के शुरू में ही स्थगित कर दी गई थी तथा तब तक इसे पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी न की गई थी।
इसलिये सरकार ने, जमींदारों ने, मालदारों ने और उनके दोस्त जी. हुजूरों ने सोचा कि यही सुनहला मौका है। इससे फायदा उठा के एक ऐसी संस्था बना दी जाय जो कांग्रेस का मुकाबिला कर सके । सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता एक तो जेल में थे। दूसरे जो बाहर थे भी उन्हें कांग्रेस की लड़ाई के प्रबन्ध से फुर्सत कहीं थी कि और कुछ करने या इस