पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/७९

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नई संस्था का विरोध करते ? जैसा कि जन आन्दोलन की सनातन रीति हैं कि दम न होने पर भीतर चला जाता है और ऊपर से नजर नहीं आता, ठीक वही बात कांग्रेस की लड़ाई की थी। वह भी भीतर ही भीतर बाग की तरह धक-धक जल रही थी। इसीलिये उसे चलाने में ज्यादा दिक्कतें थीं। पुलिस परछाई की तरह सर्वत्र धूमती जो थी पंता पाने के लिये, ताकि छपक पड़े। वह इस तरह अनजान में ही अपनी मजी के खिलाफ जनता को गुप्त रीति से अान्दोलन चलाने को न सिर्फ प्रोत्साहित कर रही थी, वरन् उसे इस काम में शिक्षित और दृढ़ बना रही थी । आखिर जरूरत पड़ने पर ही तो आदमी सब कुछ कर डालता है। इस तरह देश का अान्दोलन असली क्रांतिकारी मार्ग पकड़ के जा रहा था । गान्धी जी ने जो इसे सन् १६३४ ई० के शुरू में ही बन्द कर दिया उसका भी यही कारण था । वे इस बात को ताड़ गये थे। वे समझते थे कि यदि न रोका गया तो उनके और मध्यम वर्ग के हाथों से यह निकल जायगा । और सचमुच जन-आन्दोलन बन जायगा, और ऐसा होने में स्थिर स्वार्थों (Vested interes ts ) की सरासर हानि थी।

हाँ, तो यारों की दौड़ धूप शुरू हो गई। कभी पटना और कभी रांची में, जहीं पर गवर्नर साहब के चरण विराजते वहीं महाराजा दरभंगा वगैरह बड़े-बड़े जमींदार बार-बार तशरीफ ले जाते, बातें होती और सरकार का आशीर्वाद इस मामले में प्राप्त करने की कोशिश होती थी। आशीर्वाद तो सुलभ था ही। मगर सरकार भी देखना चाहती थी कि ये लोग उसके पात्र हैं या नहीं। उसे भी गर्ज तो थी ही कि कांग्रेस की प्रतिद्वन्द्वी कोई भी संस्था खड़ी की जाय । इसलिये बड़ी दौड़ धूप के बाद और महीनों सलाह मशविरा के फलस्वरूप जहाँ तक याद है, रांची में यह बात तय पा गई कि यनाटेंड पार्टी (संयुक्त दल) के नाम से ऐसी संस्था बनाई जाय । वेशक जमींदारों के भीतर भी इस बारे में दो दल थे जिनके बीच सिर्फ नेतृत्व का झगड़ा था कि कौन इसका नेता बने । मगर नेतृत्व तो सबसे बड़े जमींदार और पूँजीपति महाराजा दरभंगा को ही मिलना था।