पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/८६

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( २६ ) . को कुछ ज्ञान था नहीं। हम उसका ठीक-ठीक मतलब समझ सकते न थे। बस, हमारी नादानी से फायदा उठाके अपने पैसे और प्रभाव के बल पर महाराजा ने सर्वे के कागजों में यह दर्ज करवा दिया कि जमीनों पर तो किसानों का रैयती हक है। मगर उनमें लगे पेड़ों में जमींदार का हक आधा या नौ आने और हमारा बाकी । नतीजा यह होता है कि अपने ही बाप-दादों के लगाये पेड़ों से न तो एक दतवन और न एक पत्ता तोड़ने का हमें कानूनी हक। है । यदि कानून की चले तो हर दतवन और हर. पत्ते के तोड़ने की जब-जब जरूरत हो तब-तब हमें उनसे मंजूरी लेनी होगी, जो आसान नहीं । इसमें उनके नौकरों को घूस देने और उनकी पूजा- प्रतिष्ठा करने की बड़ी गुंजाइश है । इसीलिये जब तक वे खुश हैं तब तक तो ठीक । मगर ज्योंही किसी भी वजह से वे जरा भी नाखुश हुए कि हम पर मुकदमों की झड़ लग गई और हम उजड़े। नहीं तो काफी रुपये-पैसे दे के सुलह करने को विवश हुए। मगर इस तरह भी हमारी जमीनें बिक जाती है। क्योंकि हमारे पास पैसे कहाँ १ पीछे चलके तो हमें इस बात के हजारों प्रत्यक्ष उदाहरण मिले जिनमें किसान-सभा के कार्य-कर्ता इसी कारण परीक्षा न किये गये कि उनने क्यों महाराजा की जमींदारी में सभा करने की हिम्मत की। उसने यह भी कहा, और पीछे तो दरभंगा, पूर्णिया, भागलपुर के किसानों ने खून के आँसुत्रों से यही बात बताई, कि चाहे हमारे घर में पड़े मुर्दे सड़ जाय, मगर उन्हें जलाने के लिये लकड़ी तोड़ने या काटने की इजाजत उन पेड़ों से नहीं है जो सर्वे के समय थे। यही नहीं। सर्वे के वक्त के पेड़ चाहे कभी के खत्म क्यों न हों और उनकी जगह नये है. क्यों न लगे हों। फिर भी हम उन्हें काट नहीं सकते बिना महाराजा के हुक्म के । क्योंकि इसका सबूत क्या है कि पुराने पेड़ खत्म हो गये और नये लगे हैं। इसका हिसाब तो सरकार या जमींदार के घर लिखा जाता नहीं और किसानों की बातें कौन माने १ वे तो झूठे ठहरे ही । ईमानदारी और सच्चाई तो रुपयों के पास कैद है न ? इसीलिये अाज कानून के सुधार