पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/९१

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(.३६ ) होती तो अोलती कहाँ गिरती १ जमींदार अपनी जमीन में ऐसा होने देता थोड़े ही । उनके पशु मवेशी भी आखिर कहाँ जाते ? क्या खाते थे। जो वाले लोग पास के टोले में बसे थे उनकी तो झोंपड़ियाँ उन्हीं जमीनों में थीं। भला इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिये ? एक बात और थी। महाराजा की खेती ट्रेक्टर से होती है और उसके लिये बड़े-बड़े खेत चाहिये। छोटे-छोटे खेतों में उसका चलना असंभव है। मगर कोई भी देखने वाला बता सकता था कि अभी तक छोटे-छोटे खेत साफ नजर आरहे थे। खेतों के बीच की सीमाएँ (भेड्) 'साफ-साफ नजर आती थीं । वेशक, उन सीमानों के मिटाने की कोशिश जमींदार ने जबर्दस्ती की थी और सभी खेतों पर ट्रैक्टर चलवाके उन्हें एक करना चाहा था । मगर हमने खुद जाके देखा कि खेत अलग-अलग साफ ही नजर आरहे थे। असल में एकाध बार के जोतने से ही वे सीमाएँ मिट सकती नहीं हैं। कम से कम दस पाँच बार जोतिये तो मिटेंगी। मगर यहाँ तो कहने के लिये एक बार ट्रैक्टर घुमा दिया गया था। फिर भी इतने से आँख में धूल झोंकी जा सकती न थी। हाँ, तो सागरपुर में बकाश्त संघर्ष के इस सिलसिले में मुझे दो बार जाना पड़ा था। दोनों बार ऐसी जबर्दस्त मीटिंगें हुई कि जमींदार के दाँत खट्टे हो गये। एक बार तो भरी सभा में ही जमींदार के आदमी कुछ गड़बड़ी करना चाहते थे । उनने कुछ गुल-गपाड़ा करने या सवाल-जवाब करने की कोशिश की भी। हिम्मत तो भला देखिये कि दस-बीस हजार किसानों के बीच में खड़े होकर कुछ श्रादमी शोर-गुल करें । जोश इतना था कि किसान उन्हें चटनी बना डालते । मगर इसमें तो हमारी ही हानि थी। शत्रु लोग तो मार-पीट चाहते ही थे। उससे उनने दो लाभ सोचा था । एक तो मोटिंग खत्म हो जाती । दूसरे झूठ सच मुकद्दमों में फंसा के सभी प्रमुख लोगों को परीशान करते । इसलिये हमने यह बात होने न दी और किसानों को शान्त रखा । अन्त में हार के वे लोग चलते बने जब समूह का रुख बुरा देखा । मोटिंग में मौजूद पुलिस तथा दूसरे सरकारी