( ३७ ) अफसरों से भी हमने कहा कि श्राखिर दस-बीस ही लोग ऊधम करें और आप लोग चुप्य रहें यह क्या बात है ? इस पर उन लोगों ने भी उन्हें डाँटा । अब वे लोग करते क्या १ मजबूर थे। मगर दूसरी बार तो उन लोगों ने दूसरा ही रास्ता अख्तियार किया । इस बार पहले ही से सजग थे । ज्योंही हम.स्टेशन से उतरे और हमारी सवारी आगे बढ़ी कि एक बड़ा सा दल टुकड़खोरों का बाहर आया । सकरी में ही पुलिस का एक दल पड़ा था। बक्राश्त की लड़ाई में धर-पकड़ करने के लिये उसकी तैनाती थी। हम जब सकरी से बाहर. डाक बँगले से आगे बढ़े कि शोर-गुल मचाने वाले बाहर अागये । जानें क्या-क्या बकने लगे। 'महाराजा बहादुर की जय', 'किसान-सभा की क्षय', 'स्वामी जी लौट जाइये, हम अापके धोखे में न पड़ेंगे', 'झगड़ा लगाने वालों से सावधान' आदि पुकारें वे लोग मचाते थे। मजा तो तब आया जब हम आगे बढ़े और हमारे पीछे वे लोग दौड़ते जाते और चिल्लाते भी रहते । अजीव सभा यी। वह तमाशा देखने ही लायक था। वैसी बात हमें और कहीं देखने को न मिली। उनने लगातार हमारा पीछा किया। यहाँ तक कि गांव के किनारे तक आगये। मगर जब हम गाँव के भीतर चले तो वे लोग दूसरी ओर मुड़ गये । पता चला कि पास में ही जा महाराजा की कवहरी है वहीं चले गये इस बात का प्रमाण देने कि उनने खूब ही पोछा किया, गाँव तक न छोड़ा । इसलिये उन्हें पूरा मिहनताना मिल जाना चाहिये । जमी- दार की खैरखाही तो जरूरी थी ही। हमने यह भी देखा कि कुत्तों को तरह भोंकने और हमारा पीछा करने वालों में टोका चन्दन-धारी ब्राह्मए काफी थे हमें हँसी आती थी और उनकी इस नादानी पर तर्स भी होता था। मधुवनी वाले उस ब्राहाण किसान के शब्द हमारे कानों में रह-रह के गॅजते थे। हम सोचते कि आखिर यह भी उसी तरह के गरीब और मजलूम है । मगर फर्क यही है कि चाहे उसकी जमीन वगैरह भले ही विकी हो, मगर श्रात्मा और इजत न बिक्री धी। उसने अपना प्राम-मामान का रखा $
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