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कुँवर उदयभान चरित।


फूंक दीजियो वह रोंगटा फुकने न पावेगा हम आन पहुंचेंगे रहा भभूत सो इस लिये है जो कोई चाहे जब इसे अञ्जन करे वह सब कुछ देखे और उसे कोई न देखे जो चाहे करले गुरू महेन्दरगिर जिसके पांव पूजिये और धन्न महाराज कहिये उन से तो कुछ छुपाव न था महाराजा जगतपरकास उन को मोरछल करते हुए रानियों के पास ले गये सोने रूपे के फूल में हीरे मोती गोद भर भर सबने निछावर किये और माथे रगड़े इन्हों ने सब की पीठें ठोंकी रानी केतकी ने भी दण्डवत की पर जी ही जी में गुरूजी को बहुत सी गालियां दीं गुरूजी सात दिन सात रातें यहां रहके राजा जगतपरकास को सिंहासन पर बैठाके अपने उस बाघम्बर पर उसी डौल से कैलास पहाड़ पर आ धमके राजा जगतपरकास अपने अगले से ढब से राज करने लगा।

रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना
और पिछली बातों का ध्यान करके जी
से हाथ धोनाअपनी बोलीकी धुनमें॥

रानी को बहुतसी बेकली थी। कब सूझती कुछ भली बुरी थी॥
चुपके चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थी॥
कहती थी कभी अरी मदनवान। है आठ पहर मुझे वही ध्यान॥
यहां प्यास किसे भला किसे भूख। देखूहुं वाही हरे हरे रूख॥
टपके का डर है अब यह कभी। चाहत का घर है अब यह कभी॥
अमरइयों में उनका वह उतरना। और रात का सांय सांय करना॥
और चुपके से उठ के मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना॥
उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनी॥