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कुँवर उदयभान चरित।

आंखों में मरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही है॥
क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं। कबतक मा बाप से डरूं मैं॥
अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बनके हिरन हुए उदयभान॥
चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तूभी पसीज सोच में डूब॥
मैं अपनी गई हुं चौकड़ी भूल। मत मुझको सुंघाय डहडहे फूल॥
फूलों को उठाके यहां से लेजा। सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा॥
बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का लाके रखदे गठ्ठा॥
हरयाली उसी की देखळूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं॥
इन आंखों में है भड़क हिरनकी। पलकें हुईं जैसे घास बनकी॥
जब देखिये डबडबा रही हैं। ओसें आसूं कि छा रही हैं॥
यह बात जो जीमें गड़गई है। एक ओससी मुझपै पड़ गई है॥

इसी डौलसे जब अकेली होती थी तब मदनबान के साथ ऐसेही मोती पिरोती थी॥

भभूत मांगना रानी केतकी का अपनी मा रानी कामलता से आंखमिचौवल खेलने के लिये और रूठ रहना और राजा जगतपरकास का बुलाना और प्यार से कुछ कुछ कहना और वह भभूत देना॥

एक रात रानी केतकी अपनी मा रानी कामलता को भुलावे में डाल यह पूछा गुरू जी गुसाईं महेन्दरगिर ने जो भभूत बाप को दिया था वह कहां रक्खा हुआ है और उससे क्या होता है उस की मा ने कहा मैं तेरी वारी! तू क्यों पूछती है रानी केतकी कहने लगी