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कुँवर उदयभान चरित।


बान ने कहा क्यों कर। रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे चिताया और यह सुनाया सब यह अंखमिचौवल की चुहले मैंने इसी दिन के लिये कर रक्खी थीं। मदनवान बोली मेरा कलेजा थरथराने लगा मैं यह माना तुम अपनी आंखों में इस भभूत का अंजन करलोगी और मेरे भी लगादोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा और हम तुम सब को देखेंगे पर ऐसे हम कहां से जी चले हैं जो बिन लिये साथ जोबन साथ बन बन भटका करें और हिरनों के सींगों में दोनों हाथ डाल के लटका करें और जिसके लिये यह सब कुछ है सो वह कहां और होवे तो क्या जाने जो यह रानी केतकी जी और यह मदनबान निगोड़ी नुची खसोटी इन की सहेली है चूल्हे भाड़ में जाय यह चाहत जिस के लिये मा बाप राज पाट सुख नींद लाज छोड़ कर नदी के कछारों में फिरना पड़े सोभी बेडौल जो वह अपने रूपमें होते तो भला थोड़ा बहुत कुछ आसरा था न जी यह हमसे न होसकेगा। महाराज जगत परकास और महारानी कामलता का हम जान बूझ कर घर उजाड़ें और बहका के उनकी बेटी जो इकलौती लाड़ली है उसको लेजावें और जहां तहां भटका और बनासपती खिलावें और चेड़े को हिलावें ऐ जी उस दिन तुम्हें यह बूझ न आयी थी जब तुम्हारे और उसके मा बाप में लड़ाई होरही थी उसने उस मालनके हाथ तुम्हें लिख भेजा था भागचलें तब तो अपने मुँह की पीकसे उसकी चिट्ठी की पीठ पर जो लिखा था सो क्या भूलगयी तबतो वह ताव भाव दिखाया था अब जो वह कुँवर उदयभान और उनके मा बाप तीनों जने बन बन के हिरन हिरनी बने हुए क्या जानिये किधर होंगे उन के ध्यान पर माटी डाल दो नहीं तो पछतावोगी और अपना किया पावोगी मुझसे तो कुछ न हो सकेगा तुम्हारी कुछ अच्छी बात होती तो जीते जी मेरे मुँह से न