केतकी सी दुल्हन को उसी आरसीभवन में बैठाकर दुल्ह को बुला भेजा कुँवर उदयभान कन्हैया बना हुआ सिरपर मुकुट धरे सिहरा बांधे उसी तडावे और जमघट के साथ चान्दसा मुखड़ा लिये जा पहुँचा जिस जिस ढबसे बाम्हन और पण्डित कहते गये और जो जो महाराजों में रीतें चली आतियां थी उसी डोलसे उसी रूपसे भौंरी गठजोड़ा सब कुछ होलिया।
दोहे अपनी बोली के।
अब उदयभान और रानी केतकी दोनों मिले।
आस के जो फूल कुम्हलाये हुये थे फिर खिले॥
चैन होताही न था जिस एक को उस एक बिन।
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥
अय खिलाडी यह बहुत था कुछ नहीं थोडा हुआ।
अनकर आपस में जो दोनों का गट जोडा हुआ॥
चाह के डूबे हुए अय मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे अपने दिन फिरें॥
वह उड़नखटोलेवालियां जो अधर में छत बांधे हुए थिरक रहीं थीं भरभर झोलियां और मुट्ठियां हीरे और मोतियों से निछावर करने के लिये उतर आयियां और उडनखटोले ज्यों के त्यों अधर में छत बांधे हुए खडे रहे दूल्ह दुल्हन पर से सात सात फेरे होने में पिस पिस गयीं उन सभों को एक हिचकी सी लगगयी राजा इन्दर ने दुल्हन की मुंहदिखाई में एक हीरे का एक डालछपरखट और पीढी