अङ्ग में, ज़िन्दगी के हरेक शोवे में, हुस्न का जिल्वा देखना चाहता है। जहाँ सामञ्जस्य या हम-आहँगी है वही सौन्दर्य है, वही सत्य है, वही हक़ीक़त है। जिन तत्त्वों से जीवन की रक्षा होती है, जीवन का विकास होता है, वही हुस्न है। वह वास्तव में हमारी आत्मा की बाहरी सूरत है। हमारी आत्मा अगर स्वस्थ है, तो वह हुस्न की तरफ़ बेअख़्तियार दौड़ती है। हुस्न में उनके लिए न रुकनेवाली कशिश है। और क्या यह कहने की ज़रूरत है कि नेफ़ाक़ और हसद, और सन्देह और संघर्ष यह मनोविकार हमारे जीवन के पोषक नहीं बल्कि घातक हैं, इसलिए वह सुंदर कैसे हो सकते हैं? साहित्य ने हमेशा इन विकारों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है। दुनिया में मानवजाति के कल्याण के जितने आन्दोलन हुए हैं, उन सभी के लिए साहित्य ने ही ज़मीन तैयार की है, ज़मीन ही नहीं तैयार की, बीज भी बोये और उसकी सिंचाई भी की। साहित्य राजनीति के पीछे चलनेवाली चीज नहीं, उसके आगे आगे चलनेवाला 'एडवांस गार्ड' है। वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति, और कुरुचि से होता है। और लेखक अपनी कोमल भावनाओं के कारण उस विद्रोह की ज़बान बन जाता है। और लोगों के दिलों पर भी चोट लगती है, पर अपनी व्यथा को, अपने दर्द को दिल हिला देनेवाले शब्दों में वे ज़ाहिर नहीं कर सकते। साहित्य का स्रष्टा उन चोटों को हमारे दिलों पर इस तरह अंकित करता है कि हम उनकी तीव्रता को सौगुने वेग के साथ महसूस करने लगते हैं। इस तरह साहित्य की आत्मा आदर्श है और उसकी देह यथार्थ चित्रण। जिस साहित्य में हमारे जीवन की समस्याएँ न हों, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति न हो, जो केवल जिन्सी भावों में गुदगुदी पैदा करने के लिए, या भाषा-चातुरी दिखाने के लिए रचा गया हो वह निर्जीव साहित्य है, सत्यहीन, प्राणहीन। साहित्य में हमारी आत्माओं को जगाने की, हमारी मानवता को सचेत करने की, हमारी रसिकता को तृप्त करने की शक्ति होनी चाहिये। ऐसी ही रचनाओं से क़ौमें बनती हैं। वह साहित्य जो हमें विलासिता के नशे
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