पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१३

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(४)

१६

लिन खेलती गेंद-गुड़िया ले गंगा-तट को भी जाती,
बालू के घर रच रच, रहती क्रीड़ारस में वह माती।
हुई प्राप्त उसको, कुछ दिन में, पूर्वजन्म-विद्या सारी,
शरद-समय सुरसरि को जैसे हंस-पंक्ति नभ-सञ्चारी॥

१७

बिना किये शृङ्गार, अंग में शोभा जिससे आती है,
मदिरा पिये बिना ही, जिससे मद-तरङ्ग चढ़ जाती है।
बिना बाण का बाण काम का, विश्व-मनोमन्थनकारी,
वही युवापन उसे, समय पर, आया अद्भुत, बलिहार॥

१८

जैसे रङ्ग चित्र की दूनी छवि क्षण में दिखलाता है।
जैसे कमलकली की शोभा भानु विशेष बढ़ाता है।
तैसे नवयौवन ने उसके तन की सुन्दर सुघराई,
अङ्ग अङ्ग में दरसित करके, छटा अनूपम उपजाई॥

१९

महि को चरण अँगूठों से जब चलते समय दबाती थी,
नख-आभा के मिस वह मानों लाल रङ्ग टपकाती थी
उससे नूपुर-शब्द सीखने की इच्छा रखनेवाले,
हंसों ने क्या उसे सिखाये चलने के क्रम मतवाले?

२०

त्वचा मत्त करिवर के कर की अतिशय कर्कश होती है,
केले की आकृति को उसकी शीतलताई खोती है।
देखा गया न यद्यपि जग में इनका सा आकार कहीं,
उसकी जंघा के, ये दोनों, तदपि उचित उपमान नहीं॥

२१

अन्य कामिनी जिस गादी तक पहुँची नहीं कभी भी भूल,
वहीं जिसे, पीछे से, शिव ने सुख से धारण किया सम्