(५)
विश्व-विजयिनी उस बाला की कटि का पिछला भाग महान,
था कैसा कमनीय, कीजिए इससे ही उसका अनुमान॥
२२
उसकी कटि-करधनी-मध्यगत-नीलम के आभास समान,
रोमावली हुई अति शोभित, नाभी तक बढ़ाय परिमाण।
त्रिबली रुचिर, उदर ऊपर, उस कृशोदरी ने घरी नवीन,
यौवन चढ़ने की मनोज ने दी मानों सीढ़ी स्वाधीन॥
२३
उस सरोजनयनी के दोनों सटे हुए कुच कलशाकार,
एक दूसरे से लग लग कर, दुख देते थे बारंवार।
काले मुखवाले वे गोरे बढ़ कर इतने हुए विशेष,
नहीं मृणाल-तन्तु भी उनके बीच कभी कर सका प्रवेश॥
२४
फूलों ही के काम बाण है, यह सब सुनते आते हैं,
सिरस फूल से भी मृदुतर हम उसके बाहु बताते हैं।
क्योंकि पराजय पाने पर भी, जब बल अपना संभाला,
रतिपति ने श्रीकण्ठ-कण्ठ में यही बाबुबन्धन डाला॥
२५
पयोधरों से उन्नत उसका कण्ठ और मुक्तामाला,
एक दूसरे की शोभा का हुआ नित्य देनेवाला।
कभी नहीं होती इकठौरी शशि-सरोज-सुन्दरताई,
किन्तु उमा के मुख में निज निज दोनोँ ने छवि दिखलाई॥
(२६)
फूल नवल पल्लव पर रहता, विद्रुम ऊपर जो मोती,
उसकी सित्त मुसकानि अधरयुत तो इनके समान होती।
मृदु-भाषण में जब वह मुख से सुधा-सलिल बरसाती थी,
कोकिल-कूक, विषम-वीसा-सम, कानों को न सुहाती थी॥