पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(६)

२७


वायु-वेग से कम्पित सुन्दर नील कमल की छवि हारी,
उस विशालनयनों की चञ्चल चितवनि की मैं बलिहारी।
ऐसी चपल दृष्टि क्या उसने मृग-किशोरियों से पाई
अथवा मृगकिशोरियों ही को उसे स्वयं वह दे आई?

२८

उसकी देख विलासशील अति भव्य भौंह काली काली,
तजी काम ने निज-धनु विषयक बातें सब घमण्डवाली।
पशु लज्जा रखते यदि, तो कब देख उमा के अति प्यारे,
चमरी गाय शिथिल करती निज केश-प्रेम-बन्धन सारे॥

२९

चन्द्र, कमल, अधिक सब उपमा देने योग्य वस्तु-समुदाय,
जिसे जहाँ था उचित वहाँ ही रख ब्रह्मा ने चित्त लगाय।
साथ देखने की इच्छा से मानों विश्व-सुघरता-सार,
रचा उसे अत्यन्त यत्न से रूपराशि शोभा-आगार॥

३०

एक बार नारद मुनि उसको बैठी देख पिता के पास,
बोले—"हर-प्रिया यह होगी, कर आधे शरीर में वास"।
इससे, उसके लिए पिता ने की न और वर की अभिलाष,
अग्नि विहाय, नहीं पाते हे, शुद्ध हव्य को अन्य प्रकाश॥

३१

उसके पाने की महेश ने इच्छा किन्तु न दरसाई,
इसी लिए, कर सका न गिरिवर बात ब्याह की मनभाई
इष्ट कार्य्य में भी सज्जन जन चुप-अवलम्बन करते हैं,
वचन-भङ्ग होने के भय से, मन में अति वे डरते हैं॥

३२

जब से पूर्व जन्म में गिरिजा जला तभी से बैरागी,
हुए महेश बिना पत्ना क, विषय-वासना भी त्यागी।