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पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१६

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(७)

गये हिमालय की उस चोटी ऊपर तप करने भारी,
मृग-कस्तूरी से सुरभित है जिसकी वनस्थली सारी॥

३३

कुसुमकली के कुण्डल पहने, भूर्ज-वृक्ष की कोमल छाल,
बैठे शिलातलों पर नन्दी भृङ्गो आदिक प्रमथ विशाल।
बर्फ खोदते हुए खुरों से वृषभराज ने बारंवार,
असहनीय सिंहध्वनि सुन कर, किया भयङ्कर शब्द अपार॥

३४

जिससे समय सदा पाते हैं तप के फल, जन अनुरागी,
वही ईश निज आठ मूर्तियों में से एक मुर्ति आगी।
रख सम्मुख, प्रज्वलित उसे कर छोड़ काम सब संसारी,
किसी अपूर्व कामना के वश, बने तपश्चय्याकारी॥

३५

इसी समय, दो सखी साथ दे, शैलराज ने निज कन्या,
शिव-सेवा करने को भेजी, रूप-राशि गुणगण-धन्या।
यदपि विघ्नकर थी वह तप की, तदपि शम्भु ने स्वीकारी,
ऐसे में भी, मन जिनके वश, सच्चे वहा धीरधारी॥

३६

वेदी सदा स्वच्छ करती थी; फूल तोड़ने जाती थी;
जल पूजन के लिए, तया कुश, प्रेम सहित ले आती थी।
इस प्रकार शङ्कर की सेवा कर, वह उन्हें लुभाती थी;
उनके भाल-चन्द्र की किरणों से श्रम सकल मिटाती थी॥

 

इति प्रथम सर्ग।